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( ११ ) शिलालेख (जिसकी लिपि बहुत ही प्राचीन है ) इसवी सन्के १५० वर्ष पूर्वके एक जिन मन्दिर का है। उस लेख से इसवो सन्के सैकड़ों वर्ष पूर्व जैन मन्दिरथे, ऐसा प्रमाणित होता है। उस लेखकी शिल्पकला प्रायः अढाई हजार वर्ष पूर्व की है ऐसा माना जाता है। इससे भी "जिन प्रतिमा” की प्राचीनता स्पष्ट प्रगट होती है।
(३) विक्रमकी सतरहबीं शताब्दिमें खरतर गच्छीय “समयसुन्दर गणि” नामक एक बड़े विद्वान और प्रामाणिक साधु हो गये हैं। उनके समयमें श्रीघंघाणी नामक ग्राममें भूमि भागमें से बहुत सो “जिन प्रतिमाएं” निकली थी। जिन्होंका वर्णन उन्होंने स्वयं रचित स्तवनमें निम्नलिखित किया है :
बै (दो) सौ तिहोत्तर वीर थी, संवत सबल पडूर । पद्म प्रभु प्रतिष्ठिया, आर्य-सुहस्ति सूरि ॥
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