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________________ मनि जिम वसइजी, मानसरोवर नीर । हंस तणइ मधुकर मन केतक वसइजी, गज जिम नर्मदा नीर ॥ १०॥ नगर० ॥ चकविय मनि जिम रवि वसइजी, चातिक मनि जिम मेह | जालपा चरण जोवा तणाजी, मुझ मनि अधिक सनेह ||११|| नगर० ॥ भगवती दरसण देखताजी, तिम मुझ हरख जगीस | चरण कमल वलि ताहरइजी, मुझ मन वसइ निसदीस ॥ १२ ॥ नगर० ॥ संसारि ॥ १३ ॥ नगर० ॥ भगवती भकति भावइ करीजी, अहनिसइ जे नरनारि । रिद्धि नइ सिद्धिसुख सपदाजी, विलसीस्यइ ते जगदंबा गुण गावतांजी, पूजतां प्रणमतां हषंकीरति सुख संपजइजी, जालपा माई सुपसाय || १४ || नगर० ॥ इति श्री नगरकोटि परमेश्वरी स्तवन पाय | ( राजस्थानी विभाग गुटका नं० २७१ ) हिन्दी भावार्थ १. नगरकोट में जाग्रत ज्योति जालपा माई को नित्य भेटो ! जिनके दर्शन करने से दुख दूर होते हैं और सेवन करने से सभी सुख ( प्राप्त ) होते हैं । जगत् जननी, जगत की श्री और जगत की उत्पादक है । जगत में जिसकी शक्ति जगमगाहट करती है कोई उसकी मर्यादा भंग नहीं करता । ३. हे देवी! तुमने दुष्ट-दानवों का हनन कर देवताओं का कार्य सिद्ध किया है । तुम्हारे समकक्ष और कोई नहीं, जुगो जुग राज्य है । में तुम्हारा २० ४. हे महामाई ! तुम्हारे ही आधार / भक्ति से सभी मनोरथ सबों के बीच तुम ही सही सामर्थ्यशाली हो, सेवकों को भूत हो । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only फलते हैं । आधार - www.jainelibrary.org
SR No.003821
Book TitleNagarkot Kangada Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherBansilal Kochar Shatvarshiki Abhinandan Samiti
Publication Year
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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