SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तू जगनायक तू जगबंधव तू घणो जी, करि सेवक नी सार सब सुख रे सब सुख दोजइ सामी सासता रे। पूजा गीत भगति करि देव जुहारीया रे, फल्या मनोरथ काज । सब मनि रे सब मनि पूगी मनमहि आसता रे ॥१२॥ इणि परइ आदि जि गंद भेटी कुसल खेमइ निज घरइ । सब संघ आवइ ऋद्धि पावइ सुक्ख थावइ बहु परइ ॥ इम महिमा जाणी भाव आणी करइ यात्रा आदरइ सिधक्षेत्र नउ ते लाभ पामइ कहइ कनक सुविस्तरइ ॥१३॥ इति श्रीनगरकोट श्रोआदीश्वर स्तोत्रम् ॥ सं० १६३४ वर्षे कृतं प० कनकसोम गणिना। भावार्थ१. गुरुदेव के चरण कमलों में अपने हाथ जोड़ के नमस्कार कर मान का त्याग कर श्री ऋषभदेव भगवान की स्तवना करूंगा। जैसे शत्रु जय तीर्थ (यात्रा) का लाभ बतलाया है वैसे ही नगरकोट का अति विशेष रूप से कहा है। २. जैसे राजा रूपचन्द्र के आगे गुरु महाराज ने शत्रुजय यात्रा का अत्यंत लाभ बतलाया और सिद्धक्षेत्र की महिमा सुनकर रूपचंद ने तीर्थ वन्दन करके ही अन्न लेने का अभिग्रह ले लिया। ३. कहाँ अत्यन्त दूर देश जालंधर और कहां शत्रुजय शिखर ? किन्तु मन में भावोल्लास था। जिन शासनोन्नति का लाभ जानकर गुरु महाराज ने ध्यान बल से अम्बिका को निकट बुलाया। ४. अम्बिका ने कहा-मुझे किस कार्य के लिए बुलाया ? गुरु महाराज ने जो कहा उसे स्वीकार किया। रात्रि में देवगृह निर्माण कर प्रतिमा मंगाई । वहाँ धवलगिरि में जो थी वही बना ( स्थापित कर ) दी। ५. स्वप्न में देवी ने दर्शन देकर कहा-राजन् उठो! तुम्हारे पर आदीश्वर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003821
Book TitleNagarkot Kangada Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherBansilal Kochar Shatvarshiki Abhinandan Samiti
Publication Year
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy