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श्री नगरकोट चैत्य परिपाटी
(सं० १४९७) देस जलंधर भत्ति भरे वंदिसु जिणवर चंद । ठामि ठामि कउतिग कलिय विहसिय तरु बहु कंद ॥१॥
पगि पगि सीतल विमल जल सीयल वाय पयार। गोपाचल सिरि संतिजिण सयल संति सुहकार ॥२॥
विसमा मारग घाट सवे विसम गंग पायाल । सवालाख पव्वय सिहरे निम्मल नीर विसाल ॥३॥
बाणगंग बहु विमल जल वहइ जि बारह मास । गढ मढ मन्दिर वावि सर दीसइ देव निवास ॥४॥
नीला अइगरुआ तरव विहसिय वेलि अपार । दीसइ बहुपरि फूल फल विकसइ भार अढार ॥५॥
इय विसमइ गढ किंगडइ ए हूं चडिओ चमचंत । राय सुसरमा हिमगिरि आणी मूरति कंत ॥६॥ एक राति प्रासाद वर अंबाई किय चंग। तिह थिर थापिय आदि जिण दिनि दिन हुइ उछरंग ॥७॥ आलिगवसही वंदियइ ए मणिमय बिंब चउवीस । धन्न मुहूरत धन्न दिण धन्न वरस धन्न मास ।।८।। राय विहारह वीरजिण निम्मल कंचण काय । निम्मिय देवल अइ विमल रूपचंद सिरि राय ॥९॥
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