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मन्दिर और तीसरा युगादि जिन ऋषभदेव स्वामी का और चौथा मन्दिर कांगड़ा तो ऊंचे दुर्ग पर ऋषभदेव स्वामी का प्राचीनतम जिनालय था जिसका निर्माण नेमिनाथ भगवान के समय राजा सुशम ने कराया था। उस समय वहाँ का राजा नरेन्द्रचन्द्र था जो स्वयं जैन था और उसके चैत्यालय में रत्नमय जिन प्रतिमाएं थों जिनके दर्शन जयसागरोपाध्याय ने किए थे।
तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में बीजापुर में जैन धर्म की बड़ी जाहोजलाली थी। युगप्रधानाचार्य गुर्वावली एवं ताड़पत्रीय ग्रन्थ प्रशस्तियों में वासुपूज्य विधि चैत्य की प्रतिष्ठाओं अनेक देवकुलिकाओं के निर्माण, दण्डध्वजारोप आदि के उल्लेख पाये जाते हैं। उन सब देवकुलिकाओं में अधिष्ठायक वीरतिलक की प्रतिष्ठा कब हुई, यह अन्वेषणीय है। सं० १२८४ में बीजापुर में श्री वासुपूज्य स्वामी की स्थापना-प्रतिष्ठा हुई। मिती आषाढ़ सुदि २ को अमृतकीर्ति, सिद्धिकीर्ति, चारित्रसुन्दरी और धर्मसुन्दरी की दीक्षा हुई थी। सं० १२८५ ज्येष्ठ सुदि २ को कीति कलश व उदयश्री की दीक्षा हुई। ज्येष्ठ सुदि ९ को विद्याचन्द्र, अभयचन्द्र गणि की दीक्षा हुई। सं० १३१७ आषाढ़ सुदि ११ को वहां के मन्त्री ने वासुपूज्य विधिचत्य पर स्वर्णकलश, स्वणदण्ड ध्वजारोपण आदि विशेष रूप से करवाये थे। इन्हीं उत्सवों के समय वोरतिलक की प्रतिष्ठा की गई हो, यह संभव है।
जयसागरोपाध्याय कृत नगरकोट महातीर्थ चैत्य परिपाटी में नगर. कोट कांगड़ा के उपयुक्त चार मन्दिर के सिवा चार और स्थान मिलाकर पचतीथं बतलाया है। जैन धम में अनेकों तीर्थों के पास पंचतीथियों की बड़ी महिमा है। यह प्रथा प्राचीन काल से चली आतो है। नगरकोट पंचतीर्थी में दूसरा गोपाचलपुर था जिसमें शान्तिनाथ जिनालय तीसरा नंदवण (नांदौन) था , जहाँ महावीर जिनालय, चौथा कोटिल में पार्श्वनाथ स्वामी और पाँचवाँ कोठीनगर में स्वर्णमय कलशों वाला वीर प्रभु का मंदिर था। कांगड़ा के आदिनाथ जिनालय में अम्बिकादेवी होने के प्राचीन उल्लेख पाये जाते हैं। विज्ञप्ति-त्रिवेणी में ज्वालामुखी, जयन्ति
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