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सं०
जनता में आनंद छा गया, धर्मोपदेशों की झड़ी लगने से मिथ्या दृष्टि गोत्र देवतादि का पूजन परिहार हुआ । नन्दी महोत्सवादि अनेक प्रकार के धर्मकृत्य हुए । सूरिजी नगरकोट के आस पास दो वर्ष तक विचरे । ० १२७३ में पं० मनोदानंद नामक काश्मीरी पण्डित आये, शास्त्रार्थ का आह्वान होने पर महाराजाधिराज श्री पृथ्वीचंद्र की राजसभा में श्री जिनपालोपाध्याय आदि शिष्यों को श्री जिनपतिसूरिजी ने भेजा और पण्डित को शास्त्रार्थ में पराजित कर व जयपत्र सहित बड़े समारोह पूर्वक लौटे । युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में इस प्रसंग का विशद वर्णन है। श्री चंद्रतिलकोपाध्याय कृत अभयकुमार चरित्र प्रशस्ति का निम्न श्लोक भी इस विषय पर प्रकाश डालता है
भूयो भूमि भुजंग संसदि मनोनानंद विप्रंधना, हंकारो र कन्धर सुविदुरं पत्रावलंब प्रदम् जित्वा वाद महोत्सवे पुरिवृहद्वारे प्रदश्यच्चकै युक्ति संघ युतं गुरु जिनपति यस्तोषयामासिवान् ॥३७॥
आचार्य महाराज नगरकोट और तन्निकटवर्त्ती प्रदेशों में अनेक स्थलों में विचरे होंगे और के प्रवास में अनेकों भव्यात्माओं को प्रतिबोध दिया होगा | नगरकोट के राजा जैन थे और नगर में चार मन्दिरों में एक जिनालय जिसका नाम खरतरवसही था, का निर्माण भी आपके उपदेश से ही हुआ होगा । सेठ विमलचंद आपके ही कुटुम्ब के थे जिनका व्यापारिक सम्बन्ध पंजाब, दिल्ली, गुजरात में सर्वत्र था । इन दो वर्षों के क्रिया कलापों का वर्णन गुर्वावली में कुछ भी नहीं लिखा गया ।
आपका अज्ञानुवर्त्ती साधुसंघ व पट्टधर श्री जिनेश्वरसूरि ( द्वितीय ) भी उधर विचरण करते रहे मालूम देता है क्योंकि देदाकृत श्री वीरतिलक चौपई के अनुसार नगरकोट निवासी वीरउ सोनार आपका परम भक्त था जिसके अनशन लेकर स्वर्गस्थ होने का वर्णन प्राप्त है जो आगे दिया गया है ।
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