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उपाध्यायजी महाराज ने सं० १४८४ का चातुर्मास मम्मणवाहण में व्यतीत किया । पर्युषण के दिनों में अनेक श्रावक श्राविकाओं ने मासक्षमण आदि बड़े बड़े तप किए । चातुर्मास के पश्चात् पौष महीने में नन्दिमहोत्सव किया गया और तीन साधु, चार श्रावक और २४ श्राविकाओं ने तपश्चरण और नाना अभिग्रह धारण किए । नगरकोट से आते समय देवपालपुर में मेघराज गणि आदि जिन चार साधुओं को चातुर्मास हेतु छोड़ आए थे वे भी उपाध्यायजी के समीप आ पहुँचे ।
विज्ञप्ति - त्रिवेणी का यात्रा वर्णन प्रकाश में आने पर वर्तमान में यह महातीर्थ प्रकाश में आया पर इतः पूर्व की स्थिति पर प्रकाश डालना आवश्यक है । चैत्यवास के युग में सुविहित साधुओं के विचरण के अभाव में उस समय के इतिहास को प्रकाश में लाने का साधन अनुपलब्ध है । सुविहित शिरोमणि श्रीहरिभद्रसूरि जैसे धुरन्धर आचार्यों ने शिथिलाचार का तीव्रविरोध किया श्री वर्द्धमानसूरि श्री जिनेश्वरसूरि ने दुर्लभराज की सभा, अणहिलपुर पाटण में जाकर उनसे लोहा लिया और शास्त्रार्थ विजेता होकर खरतर विरुद प्राप्त कर शुद्ध साध्वाचार को प्रतिष्ठित किया उनकी परम्परा में जिनवल्लभसूरि - जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि व जिन पतिसूरि आदि ने उस ज्योति को प्रज्वलित रखा। श्री जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनशेखर की रुद्रपल्लीय परम्परा तो शताब्दियों तक विचरती रही हो पर उपर्युक्त महान् आचार्यों ने जनता को प्रतिबोध देकर लाखों की संख्या में ओसवाल - श्रीमाल महत्तियाण आदि जातियों में श्री वृद्धि की । खण्डेलवाल, माहेश्वरी व ब्राह्मणादि को भी जैन धर्मावलम्बी बनाया । राजगच्छ आदि कई परम्पराओं के छिटफुट उल्लेख पाये जाते हैं पर व्यवस्थित इतिहास का अभाव है । इसी परिप्रेक्ष्य में श्रीजिनपतिसूरिजी के नगरकोट कांगड़ा पधारने पर सं० १२७१ में राणाश्री आसराज आदि बहुसंख्यक लोगों ने वृहद्वार में सन्मुख आकर स्वागत किया और मुनि मण्डल सहित आचार्यश्री के नगरकोट पधारने पर 50 विजय श्रावक ने बड़े भारी समारोह के साथ सूरिजी का प्रवेशोत्सव किया ।
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