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विद्वत्ता और वाक् चातुरी से राजा और राजसभा सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए और जैन विद्वानों की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। इसके बाद राजा ने अपना देवागार दिखलाया जिसमें स्फटिक रत्नादि विविध पदार्थों की बनी हुई तीर्थंकर आदि अनेक देवों की मूर्तियां विराजित थीं। इस प्रकार दिन का अधिकांश भाग बिताकर संध्याकालीन प्रतिक्रमणादि क्रिया-काण्ड के हेतु उपाध्यायजी ने अपने स्थान पर जाने की इच्छा प्रकट की। राजा ने आदरपूर्वक, फिर पधारने के निवेदन सहित संघकीय मंडली को विदा किया।
सप्तमी के दिन संघ की ओर से नगर और किले के चारों मन्दिरों में महापूजा रचाई गई। मन्दिरों को गर्भागार से लेकर ध्वजादण्ड तक, बहुमूल्य ध्वजा पताकाओं से सजाये गए। भगवान के सम्मुख नाना प्रकार के फल-फूल, पक्वान्न नैवेद्यादि भेंट किये गए। स्थान स्थान पर बाजे वजने लगे, नृत्य होने लगे, स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं। संघपति ने गरीब से लेकर धनाढ्य तक-सभी को प्रीति भोजन करवाया। अष्टमी के दिन श्री शान्तिनाथ जिनालय में बड़े ठाठ के साथ नन्दी की रचना की गई और मेघराजगणि, सत्यरुचि गणि, मतिशील गणि, हेमकुंजर मुनि और कुलकेशरि मुनि को उपाध्यायजी ने पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध की अनुज्ञा दी। एवं दश दिन तक नगरकोट्ट में संघ ने स्थिति की। वहां के जीदो, वीरो, हर्षों, चंभो. संभो, गंभो आदि श्रावकों ने उपाध्यायजी को चातुर्मास रहने के लिए बहुत कुछ आग्रह किया। ग्यारहवें दिन सकल संघ एकत्र होकर फिर समस्त मन्दिरों में गया और भक्ति-गद्गद् स्वर से परमात्मा की प्रार्थना करता हुआ प्रास्थानिक चैत्यवन्दन कर वापस रवाना हुआ।' अनेक पहाड़ों, १. विज्ञप्ति-त्रिवेणी में ज्वालामुखी, जयन्ती, अम्बिका और लंगड़ा वीर का उल्लेख किया है। यतः
ज्वालामुख्या जयन्त्या च श्रीमदम्बिकया तथा। वीरेण लङ्गडाख्येन यदसेवि सदैव हि ॥१॥ संसार सागरोत्तार तीर्थात्तीर्थोत्तमात्ततः । श्रीमन्नगरकोटा ख्यात् प्रस्थिताः सह साथिकैः ।।२।।
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