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भाव पूजा के साथ साथ प्रचुर फल-फूल नैवेद्यादि द्वारा द्रव्य पूजा कर अपनी आत्मा को निर्मल बनाया।
नगरकोट-कांगड़ा के वृद्धजनों ने संघ के यात्रियों को तीर्थ का माहात्म्य बतलाते हुए कहा कि-यह महातीर्थ श्रीनेमिनाथ स्वामी के समय सुशर्म नामक राजा ने स्थापित किया था और आदिनाथ भगवान की प्रतिमा किसी के द्वारा घड़ी हुई न होकर स्वयंभू-अनादि है। इसका बड़ा भारी अतिशय आज भी प्रत्यक्ष है। भगवान की चरण सेविका शासनदेवी अम्बिका है, इसके प्रक्षालन का पानी चाहे वह एक हजार घड़ों जितना हो तो भी भगवान के प्रक्षालन के पानी के साथ पास-पास होने पर भी कभी नहीं मिलता। मन्दिर के मूल गर्भगृह में कितना ही स्नात्र जल क्यों न पड़ा हो, बाहर से दरवाजे ऐसे बंद कर दिए जाएं कि चींटी भी प्रवेश न कर सके, तो भी क्षण मात्र में सारा पानी सूख जायगा। ऐसे बहुत से प्रभाव आज भी इस महातीर्थ के प्रत्यक्ष हैं। इस तीर्थ महिमा गुणगान के भक्ति सिक्त वातावरण में राजा नरेन्द्रचन्द्र ने अपने प्रधान-पुरुषों को भेजकर संघ सहित उपाध्याय श्री जयसागरजी को बहुमान पूर्वक बुलाया। यह राजा विशुद्ध क्षत्रिय, न्यायवान, सुशील, सद्गुणी और धर्म प्रेम से ओत प्रोत था। इसका कुल सोमवंशीय नाम से प्रसिद्ध था, इसने सपादलक्ष पर्वत के पहाड़ी राजाओं को पराजित करके उन्हें गत गर्व किया था। श्वेताम्बर साधुओं पर इसका बड़ा प्रेम और आदर था। अपने महल में पूर्वजों द्वारा स्थापित आदिनाथ प्रतिमा का यह परमोपासक था। राजा के बुलाने पर संघ सहित उपाध्याय जी राजसभा में पधारे। उसने मस्तक नमा कर उन्हें वन्दन किया, बदले में उपाध्याय जी ने धर्मलाभ दिया ।
राजसभा में सब के यथायोग्य स्थान पर बैठ जाने के बाद राजा ने कुशल प्रश्नादि पूछे फिर स्वयं उपाध्याय जी के साथ विद्वद् गोष्ठी करने लगा। साथ में अन्यान्य ब्राह्मण-क्षत्रियादि भी वार्तालाप करने लगे। एक काश्मीरी विद्वान कुछ देर शास्त्रार्थ भी करता रहा। उपाध्यायजी की
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