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पर पहुँचा । नदी पार कर क्रमशः पहाड़ों की चोटियों को उल्लंघन कर के दूर से स्वर्ण मय कलश-मण्डित प्रासादों की पंक्तिवाले नगरकोट-सुशर्मपुर को देखा। बाणगंगा नदी पार कर नगर में जाने की तैयारी कर रहे संघ के स्वागतार्थ वहाँ के नागरिक और जैन समुदाय ने आकर वाजित्रों की विविध ध्वनि और जयजयकार के साथ यात्री संघ का नगर में प्रवेश कराया। नगर के प्रसिद्ध प्रसिद्ध मुहल्लों व बाजारों में से होकर साधु क्षीमसिंह के बनवाये हुए शान्तिनाथ जिनालय के सिंहद्वार पर पहुँचा। यहां के मूल नायक शांतिनाथ स्वामी की प्रतिमा खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनेश्वर सूरिजी की प्रतिष्ठित थी। सं० १४८४ के ज्येष्ठ सुदि ५ के दिन यह यात्रा फलवती हुई। यहाँ से श्री संघ ने राजा रूपचन्द के बनवाये हुये मन्दिर में जाकर सुवर्णमय महावीर बिम्ब को वन्दन किया फिर तीसरे ऋषभदेव जिनालय में दर्शन वन्दन कर अपना मानव जन्म सफल किया। संघ के उतरने और विश्राम करने की व्यवस्था की गई।
दूसरे दिन प्रातःकाल नगर के पार्श्ववर्ती पहाड़ी पर स्थित अनादि युगीन, अति प्रभावशाली श्री आदिनाथ स्वामी के प्राचीन और सुन्दर जिनालय की यात्रा करने के लिए संध ने प्रस्थान किया। संघपति मार्ग में याचक गणों को इच्छित दान देता हआ जा रहा था। किले में जाने के लिए राजमहलों के बीच में होकर जाना पड़ता था। इसलिए राजा नरेन्द्रचन्द्र ने अपने कर्मचारियों को संघ के लोगों को बेरोक टोक आने देने की आज्ञा देदी। साथ में हेरंब नामक एक आत्मीय कर्मचारी को किले का मार्ग बताने के लिए भेजा। इस मार्गदर्शक के साथ राजभवनों के मध्य होकर क्रमशः सात दरवाजों को पार कर संघ ने किले में प्रवेश किया। मार्ग में संघ को देखने के लिए राजकीय व प्रजाजनों की भीड़ लगी हुई थी। संघने श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में जाकर भक्ति पूर्वक दर्शन किये। मुनियों ने विविध प्रकार से स्तवना १ कर भाव पूजा की और श्रावकों ने १. उपाध्यायजी के शिष्य मुनि मेघराज कृत २४ पद्यों वाला हारबन्ध स्तोत्र विज्ञप्ति
त्रिवेणी में हैं, जिसे आगे दिया जा रहा है।
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