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५९. संसारचन्द्र रणक्षेत्र में भिड़ गया, उसने तलवारों को सान पर चढा कर तीक्ष्ण किया । पुरुषार्थ से म्लेच्छ सेना का नाश करने लगा, हाथीघोड़े और पदाति सेना का संहार किया ।
६०. घोड़े देकर दान- मान से सन्तुष्ठ कर, विग्रह के दूषण की जड़ काट कर रोज शाह प्रेम संपादन कर भाग गया, वह रातो रात देश छोड़ कर
चला गया ।
६१. पेरोजशाह का पुत्र महम्मदशाह संग्राम से भग कर दिन रात कर आया । संसारचन्द्र ने शरणागत बादशाह की रक्षा कर पैत्रिक कीर्ति की रक्षा की ।
६२. त्रिवेणी संगम - प्रयाग तीर्थं जाकर माघ का न्हवण किया और अपने पितरों को सन्तुष्ठ किया। वाराणसी में श्री विश्वनाथ धाम स्पर्श कर पाप-मलं धोया । सुर तीर्थ - गया में सभी पूर्वजों को पिण्डदान से प्रसन्न किया। बुद्ध भगवान को नमस्कार कर समस्त पाप (नष्ट कर) अपनी देह को रंजित किया । सत्वशील त्रिगर्त्तेश्वर राजा संसारचंद्र भावपूर्वक तीर्थों को प्रणाम किया। फिर वे अपनी कीर्ति श्री को विस्तृत विकसित किया ।
६३. राजा संसारचन्द्र का पुत्र देवंगचंद्र समस्त राजाओं का शिरोमुकुट त्रिगर्तेश्वर सर्वाङ्ग भाव युक्त हुआ ।
६४. भोगी भ्रमर, पवित्र चरित्र वाला, महा आनंद संपूरित प्रसन्न आत्मा, कला - केलि निवास, पवित्र योग रक्त, शिव पद भक्त, सुसत्त्व चेता और ६५. श्रेष्ठ धनुर्धर, पृथ्वी को भोगने वाला, सुरक्त, अच्छे चित्त वाला, रण विद्या में मत्त, कुकर्मों से विरक्त, दानेक्य वीर, पृथ्वी दान करने में सावधान सुधीर था ।
६६. वह शत्रुओं के लिए काल स्वरूप, कवित्त्व रसिक, विशाल मतिवान्, विवेकी, शालीन, अत्यन्त पवित्र, मित्र वर्गों से संपूरित, लक्ष्मी का घर, धर्म मार्ग में सुन्दर हुआ ।
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