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४४. जयसिंह राजा का पुत्र धराधिप जयचन्द्र हुआ जो रुद्र पद भक्त, समस्त
शत्रओं का नाशक धनवान, दान से कोति विस्तारक, मित्रजन रूपी गहन वेलि वन के लिये मेघ के सदृश हुआ।
४५. कृष्ण पद भक्त, विपुल मति वाला, कीति-कुमुदवन को विकसित करने
में चन्द्र जैसे पृथ्वीचन्द्र राजा ने शिव मार्ग को त्याग दिया था। जैन धर्म मार्ग का ज्ञाता राजा पृथ्वी (चन्द्र) हिमकरण-चंद्र की भाँति कुलवर्द्धक हुआ। सुरराज विष्णु का श्रेष्ठ रमण (भवन) निर्मापक, शासन कार्य करने रूप पहाड़ को धारण करने की मति वाला, पुण्य कार्यों में अपना द्रव्य लगाने वाला नरवरेन्द्रश्रेष्ठ पृथ्वीचन्द्र हुआ।
४६.
४७. बाँए तरफ के हाथी के पास श्रीरमण-कृष्ण सुशोभित किया। प्रभु
के पृष्ठ भाग में आसन पर पुष्पवृष्टि करता हुआ देवस्थित है। ऊंचे भुवन में जिसने महुरिओ ( मधुरिपु-कृष्ण ) को स्थापित किया, अपूर्व
चन्द्र राजाने द्रव्य व्यय किया। ४८. पृथ्वीचंद्र का पुत्र अपूर्वचन्द्र राजा सुशर्मचंद्र के कुल में हुआ, जिसका
पुत्र रूपचन्द्र वसुधा में प्रसिद्ध हुआ। ४९. रूपचन्द्र शत्रुओं के दर्प को खण्डित करनेवाला, पण्डित लोगों की बुद्धि
बढ़ानेवाला और षट्दर्शन की पूजा करने में बड़ा विचक्षण था। ५०. उसने जिनेश्वर श्री वीर-महावीर प्रभु को स्वर्णमय प्रतिमा कराई
और रूपेश्वर में भी अर्थ व्यय कर अपने नगर में स्थापित कर पुण्य
वृद्धि की और अपनी कीर्ति सुरक्षित की। ५१. सभी राजा जिसके चरणों में नमस्कार करते हैं, कविजन कीत्ति पूर्ण
प्रशंसा करते हैं। ज्वालामुखी के ध्यानमें अत्यन्त लीन है, उसकी कृपा से अक्षीण ऋद्धिवाला है।
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