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साथ ठाकुर विजयसिंह सामने आये और विस्तार पूर्वक उद्यापन, नन्दी रचनादि करके उत्सव को सफल बनाया। इसके बाद आचार्य महाराज अपनी शिष्य मण्डली के साथ तीन चार वर्ष तक उस प्रदेश में विचरे थे तथा सं० १२७३ में महाराजा पृथ्वीचन्द्र की सभा में पं. मनोदानंद के साथ शास्त्रार्थ विजय करने का उल्ले ऊपर किया जा चुका है। सं० १२७४ में वहाँ से वापस पधार कर राणा आसराज के गाँव दारिद्ररक में चातुर्मास किया था। इन वर्षों में सूरिजी ने राजा को प्रतिबोध देकर पक्का जन तो बनाया ही, साथ ही साथ राणा और ठाकुर लोगों को भी जैन धर्म में दीक्षित किया मालूम देता है। ये लोग जागीरदार एवं उच्च राज्याधिकारी थे, ठाकुर उनकी पदवी थी। सूरिजी के पट्टधर श्री जिनेश्वरसूरि एवं अन्य शिष्य वर्ग वहाँ विचरण करता रहा है "वीरतिलक चौपई" में नगरकोट के वीर सोनार के श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रतिबोध पाने और अनसन आराधना पूर्वक स्वर्गगति पा कर “वीरतिलक वीर" होने को विवरण मिलता है।
महाराज पृथ्वीचन्द्र के पुत्र (२५) अपूवचन्द्र का पुत्र (२६) महाराजा रूप चन्द्र बड़ा शूरवीर दानी और षट्दर्शनी विद्वानों की पूजा करने वाला विचक्षण पुरुष था। उसने अपने नगर में श्री महावीर स्वामी की स्वर्णमय प्रतिमा विराजमान की और रूपेश्वर मन्दिर के निर्माण में प्रचुर अर्थ व्यय किया था। जयसागरोपाध्याय ने भी स्वर्णमय महावीर बिम्ब वाले जिनालय का वर्णन किया है। सं० १४८८ की चैत्य परिपाटी में भी 'सोवनवसही' लिखा है और सं० १४९७ की चैत्य परिपाटी में इसे 'राय विहार' लिखते हुए रूपचंद राजा कारित स्वर्णमय बिम्ब वाला लिखा है। अभयधर्म कृत नगरकोट वीनती में भी सोवन वसइ में स्वर्णमय महावीर स्वामी के जिनालय को राजा रूपचंद स्थापित लिखा है। जब कि सं० १६३४ में कवि कनक. सोम लिखते है कि राजा रूपचंद ने गुरु महाराज से शत्रुजय माहात्म्य सुन कर दर्शन किये बिना अन्न ग्रहण न करने का अभिग्रह लिया और गुरु महाराज के ध्यान बल से अम्बिका के प्रगट होकर एक रात्रि में मन्दिर निर्माण कर धवलगिरि से प्रतिमा ला कर विराजमान कर तीर्थ स्थापना करने का
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