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को शास्त्रार्थ में पराजित करने का विशद वर्णन मिलता है। महाराजा पृथ्वीचन्द्र द्वारा जयपत्र प्राप्त कर मिती ज्येष्ठ बदि १३ को शान्तिनाथ भगवान के जन्म कल्याणकोत्सव पर इस उपलक्ष में वहाँ के श्रावकों द्वारा एक वृहत् जयोत्सव मनाया गया था। विशेष जानने के लिए देखिए युग प्रधानाचार्यगुर्वावली।
सन् १८७२-७३ में आकियोलोजिकल सर्वेरिपोर्ट v के पेज १५२ में नगरकोट कांगड़ा के शासकों की सूची प्रकाशित हुई है जो हमें श्री रामवल्लभ सोमानी ने तथा जे० हचीसन ( Hatchison ) की हिस्ट्री आफ दी पंजाब हिल स्टेट्स Voe I से महाराज कुमार डा० रघुवीरसिंहजी ने एक सूची भेजी है जिसमें भी कनिंघम साहब का ही अनुधावन है। वास्तव में सभी ने महाराजा पृथ्वीचन्द्र से कांगड़ा के इतिहास को क्रमबद्ध किया है किन्तु इसके समय निर्धारण में ही भूल है। इतिहासकारों ने पृथ्वीचन्द्र का राज्य काल सन् १३३०-१३४५ ई० लिखा है जबकि हमें उपयुक्त खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली सन् १२१६ में उनको महाराजाधिराज के रूप में मान्य करने को डंके की चोट बाध्य करती है। कनिंघम साहब की इस भ्रान्ति ने सारे इतिहास को असंबद्ध व स्खलनापूर्ण बना दिया है। उन्होंने अपनी कल्पना सृष्टि से सन् १४८० तक १५५० वर्षों में प्रत्येक का राज्यकाल १५ वर्ष में बांट कर १० राजाओं को खपा दिया है, जिसके लिए कोई आधार नहीं है। इन सबको इतिहास की कसौटी पर कस कर सही समय निर्धारित करना ऐतिहासज्ञों का काम है। हम यहाँ कवि जयानंद कृत छंद के आधार पर आगे विचार करते हैं।
नृपति वर्गन छंद के पद्याङ्क ४५ में लिखा है कि राजा पृथ्वीचन्द्र पहले कृष्णोपासक था, फिर उसने जन धर्म का तत्वबोध पा कर शैव धर्म का त्याग कर दिया। उसने विष्णु भगवान का श्रेष्ठ उत्तुंग भवन निर्माण कराया और श्री कृष्णजी की मूर्तियाँ विराजमान की थी। अपूर्वचन्द्र ने भी वैसी ही उदारता दिखलाई थी। खरतरगच्छ गुर्वावली से मालूम होता है कि सं० १२७१ में श्री जिनपतिसूरिजी वृहद् द्वार पधारे और राणा आसराज आदि के
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