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सुशर्मचन्द्र के पश्चात् उसका पुत्र ६ सूरशर्म, फिर ७ हरिचंद्र और ८ गुप्तिचन्द्र नरेश्वर हुए। छंद के बाद की सूची में इन दोनों के स्थान में केवल देशलचंद का नाम है। फिर ९ ईशानचन्द्र १० वजड़चन्द्र ११ वें नाहड़चन्द्र' हुए। ये जिनेश्वर के धर्म में लवलीन और शूरवीर थे। इन्होंने साचोर में श्री महावीर स्वामी और तन्निकटवर्ती नगर-नगर में कूप-सरोवर-वापी और सुन्दर भवनों का निर्माण कराया। ये बड़े यशस्वी, दानी और क्षमाशील नरेश्वर थे। इन्होंने एकरात्रि में प्रासाद निर्मित कराके भगवान ऋषभदेव और अम्बिका देवी को कांगड़ा दुर्ग में तीर्थ की स्थापना करके-विकसित करके स्वर्ग प्राप्त किया था। इनका पुत्र १२ अश्वत्थामा नरेश्वर भी बड़ा वीर था। उसने रणक्षेत्र में गौड़ देशाधिपति को पराजित कर उसकी सुन्दर पुत्री लूणादेवी को विवाह करके लाया। गुटके को सूची में नाहड़चन्द्र के पश्चात् ११ द्वितीयचन्द्र का उल्लेख है। अतः अश्वत्थामा में दोनों १२ नंबर में आये हैं। फिर १३ खङ्गशाली, १. विविध तीर्थ कल्प के अनुसार साचोर महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा जज्जिगसूरि
ने वीर सं० ६०० में की। वहाँ इनके पूर्वज विझराय का नाम है। जो नगरकोट की वंशावली में कहीं नहीं मिलता। नाहड़ या नागभट मण्डोवर का प्रतिहार राजा था, जिसने २४ उत्तुंग शिखर वाले चैत्य बनवाये। घटियाला के शिलालेख में इसके पिता का नाम नरभट और पुत्र तात उसका यशोवर्द्धन लिखा है जो नगरकोट से भिन्नता का सूचक है। घटियाला के शिलालेख में यशोवर्द्धन के पुत्र चंदुक-सिल्लुक-झोट-भिल्लुक और क्रमशः उसके पुत्र कक्क पत्नी दुर्लभदेवी से उत्पन्न कक्कुक द्वारा सं० ९१८ में मण्डोवर और रोहिंसकूप में कीत्तिस्तंभ द्वय बनवाये। यह सिद्धालय धनेश्वरसूरि के गच्छ के गोष्ठियों को अर्पण किया।
प्राकृत तित्थकप्प में नाहड़ के पिता का नाम जितशत्रु लिखा है और वीर सं० ३०० वैशाखी पूणिमा को जज्जिगसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। वास्तव में नागभट-नाहड़ का चरित्र उलझन पूर्ण है। कई गूर्जर प्रतिहार नागभटनागावलोक द्वितीय के साथ आम राजा का समीकरण करते हैं और कुछ कन्नोज नरेश यशोवर्मन (६९०-७२० ई.) के साथ, कोई उसके पुत्र और उसके उत्तराधिकारी के साथ तो कोई कन्नौज के आयुधवंशीय इन्द्रायुध आदि नरेश के साथ मिलाते है। अतएव यह स्वतंत्र शोध का विषय है।
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