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गणधर गौतम : परिशीलन
- गौतम को स्पष्ट आभास होने लगा-'मेरी यह धारणा ही भ्रमपूर्ण थी कि प्रभु की मेरे ऊपर अपार ममता है। प्रभु के ऊपर ममता, आसक्ति, अनुराग दृष्टि तो मैं ही रखता था । मेरा यह प्रेम एकपक्षीय था। यह राग दृष्टि ही मेरे केवली बनने में बाधक बन रही थी। द्वेष-बुद्धि या राग-दृष्टि के पूर्ण अभाव में ही प्रात्म-सिद्धि का अमृततत्त्व प्रकट होता है, विद्यमानता में कदापि नहीं । मैं स्वयं ही अपनी सिद्धि को रोक रहा था, इसमें भगवान् का क्या दोष है ? मेरी इस राग दृष्टि को दूर करने के लिये ही प्रभु ने अन्त समय में मुझे दूर कर, प्रकाश का मार्ग दिखाकर मुझ पर अनुग्रह किया है। किन्तु, मैं अबूझ इस रहस्य को नहीं समझ सका और प्रभु को ही दोष देने लगा । हे क्षमाश्रमण भगवन् ! मेरे इस अपराध/ दोष को क्षमा करें।"
पश्चात्ताप, आत्मनिरीक्षण तथा प्रशस्त शुभ अध्यवसायों की अग्नि में गौतम के मोह, माया, ममता के शेष बन्धन क्षणमात्र में भस्मीभूत हो गये । उनकी आत्मा पूर्ण निर्मल बन गई और उनके जीवन में केवलज्ञान का दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया।
भगवान् महावीर का निर्वाण गौतम स्वामी के केवलज्ञान का निमित्त बन गया ।
ईस्वी पूर्व ५२७ कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा का उषाकाल गौतम स्वामी के केवलज्ञान से प्रकाशमान हो गया । इसी दिन गौतम स्वामी सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गये थे।
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