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गौतम रास : परिशीलन
की विचारधारा में परिवर्तन आया। अन्तर्मुखी होकर गौतम विचार करने लगे
“अरे ! चार ज्ञान और चौदह पूर्वो का धारक तथा महावीर-तीर्थ का संवाहक होकर मैं क्या करने लगा ! मैं अनगार हूँ, क्या मुझे विलाप करना शोभा देता है ? करुणासिन्धु, जगदुद्धारक प्रभु को उपालम्भ दूं; क्या मेरे लिये उचित है ? अरे! जगद्वन्द्य प्रभु की कैसी अनिर्वचनीय ममता थी ! अरे ! प्रभु तो असीम स्नेह के सागर थे, क्या वे कभी कठोर बनकर, विश्वास भंग कर छेह दे सकते हैं ? कदापि नहीं। अरे ! भगवान् ने तो बारम्बार समझाया था-गौतम ! प्रत्येक आत्मा स्वयं की साधना के बल पर सिद्धि प्राप्त कर सकती है । दूसरे के बल पर कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता और न कोई किसी जीव की साधना के फल को रोक सकता है । मुझे अभी तक कैवल्य प्राप्त नहीं हुआ तो इसमें भगवान् का क्या दाष है ! इसमें भूल या कमी तो मेरी ही होनी चाहिए।"
गौतम का अन्तर्-चिन्तन बढ़ने से प्रशस्त विचारों का प्रवाह बहने जगा । वे वीर ! महावीर !! का स्मरण करतेकरते प्रभु के वीतरागपन पर विचार-मन्थन करने लगे "प्रो! भगवान् तो निर्मम, नीरागी और वीतराग थे। राग-द्वेष के दोष तो उनका स्पर्श भी नहीं कर पाते थे। ऐसे जगत् के हितकारी वीतराग प्रभु क्या मेरा अहित करने के लिये अन्त समय में मुझे अपने से दूर कर सकते थे? नहीं, नहीं ! प्रभु ने जो कुछ किया मेरे कल्याण के लिये ही किया होगा।"
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