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गौतम रास : परिशीलन
अतः तुम अधीर मत बनो, चिन्ता मत करो। और, "जिस प्रकार शरत्कालीन कुमुद पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू भी अपने स्नेह को विच्छिन्न (दूर) कर । तू सभी प्रकार के स्नेह का त्याग कर । हे गौतम ! समय-मात्र का भी प्रमाद मत कर ।'
प्रभु की उक्त अमृतरस से परिपूर्ण वाणी से गौतम पूर्णतः आश्वस्त हो गए। "मैं चरम शरीरी हूँ" इस परम सन्तुष्टि से गौतम का रोम-रोम आनन्द सरोवर में निमग्न हो गया।
भगवान् का मोक्षगमन ईस्वी पूर्व ५१५ का वर्ष था। श्रमण भगवान् महावीर का अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में था । चातुर्मास के साढ़े तीन माह पूर्ण होने वाले थे। भगवान् जीवन के अन्तिम समय के चिह्नों को पहचान गये। उन्हें गौतम के सिद्धि-मार्ग में बाधक अवरोध को भी दूर करना था, अतः उन्होंने गौतम को निर्देश दिया-गौतम ! निकटस्थ ग्राम में जाकर देवशर्मा को प्रतिबोधित करो।
गौतम निश्छल बालक के समान प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य कर देवशर्मा को प्रतिबोध देने के लिये चल पड़े।
इधर, लोकहितकारी श्रमण भगवान् महावीर ने छट्ठ तप/दो दिन का उपवास तप कर, भाषा-वर्गणा के शेष पुद्गलों को पूर्ण करने के लिये अखण्ड धारा से देशना देनी प्रारम्भ की।
१. उत्तराध्ययन सूत्र अ. १० गा. २८
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