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________________ ५३ गणधर गौतम : परिशीलन सब से क्षमा याचना की । तत्पश्चात् वे चिन्तन- दोला में हिचकोले खाने लगे । " क्या मेरी अष्टापद यात्रा निष्फल जाएगी ? क्या मैं गुरु-कर्मा हूँ ? क्या मैं इस भव में मुक्ति में नहीं जा पाऊँगा ?" यही चिन्ता उन्हें पुनः सताने लगी । गौतम को आश्वासन - भगवान अन्तर्यामी थे । 1 वे गौतम के विषाद को एवं धैर्य युक्त मन को जान गए । उनकी खिन्नता को दूर करने के लिये भगवान ने उनको सम्बोधित करते हुए कहा हे गौतम! चिरकाल के परिचय के कारण तुम्हारा मेरे प्रति ऊर्णाकट ( धान के छिलके के समान ) जैसा स्नेह है । इसीलिये तुम्हें केवलज्ञान नहीं होता । देव, गुरु, धर्म के प्रति प्रशस्त राग होने पर भी वह यथाख्यात चारित्र का प्रतिबन्धक है । जैसे सूर्य के अभाव में दिन नहीं होता, वैसे ही यथाख्यात चारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं होता । प्रतः स्पष्ट है कि जब मेरे प्रति तुम्हारा उत्कट राग / स्नेह नष्ट होगा, तब तुम्हें अवश्यमेव केवलज्ञान प्राप्त होगा । 1 पुनः भगवान ने कहा - " गौतम ! तुम खेद - खिन्न मत बनो, अवसाद मत करो | इस भव में मृत्यु के पश्चात्, इस शरीर से छूट जाने पर; इस मनुष्य भव से च्युत होकर, हम दोनों तुल्य (एक समान) और एकार्थ ( एक ही प्रयोजन वाले अथवा एक ही लक्ष्य - सिद्धि क्षेत्र में रहने वाले ) तथा विशेषता रहित एवं किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित हो जाएंगे । 1" १. भगवती सूत्र शतक १४, उद्देशक ७, सूत्र. २. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003811
Book TitleGautam Ras Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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