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गौतम रास : परिशीलन
समवसरण की अपूर्व एवं नयनाभिराम रचना देखकर वे दिङमूढ़ से हो गये । जैसे-तैसे समवसरण के प्रथम सोपान पर कदम रखा । समवसरण में स्फटिक रत्न के सिंहासन पर विराजित वीतराग महावीर के प्रशान्त मुख-मण्डल की अलौकिक एवं अनिर्वचनीय देदीप्यमान प्रभा से वे इतने प्रभावित हुए कि कुछ भी न बोल सके। वे असमंजस में पड़ गये और सोचने लगे- 'क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण ही तो साक्षात रूप में नहीं बैठे हैं ? नहीं, शास्त्रोक्त लक्षणानुसार इनमें से यह एक भी नहीं है। फिर यह कौन है ? ऐसी अनुपमेय एवं असाधारण शान्त मुख मुद्रा तो वीतराग की ही हो सकती है। तो, क्या यही सर्वज्ञ है ? ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न सर्वज्ञ की तो मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था। वस्तुतः यदि यही सर्वज्ञ है तो मैंने यहाँ त्वरा में प्राकर बहुत बड़ी गलती की है। मैं तो इनके समक्ष तेजोहीन हो गया हूँ। मैं इसके साथ शास्त्रार्थ कैसे कर पाऊंगा। मैं वापस भी नहीं लौट सकता। लौट जाता हूँ तो आज तक की समुपाजित अप्रतिम निर्मल यशोकीत्ति मिट्टी में मिल जाएगी। तो मैं क्या करू?' इन्द्रभूति इस प्रकार की उधेड़बुन में संलग्न थे ।
उसी समय अन्तर्यामी सर्वज्ञ महावीर ने अपनी योजनगामिनी वाणी से सम्बोधित करते हुए कहा--- "भो इन्द्रभूति गौतम ! तुम आ गये?" अपना नाम सुनते ही इन्द्रभूति चौंक पड़े। अरे ! इन्होंने मेरा नाम कैसे जान लिया ? मेरी तो इनके साथ कोई जान-पहचान भी नहीं है, कोई पूर्व परिचय भी नहीं है । अहँ प्रताड़ित होने से पुनः संकल्प-विकल्प की दोला में डोलने लगे । चाहे मैं किसी को न जान, पर मुझे कौन नहीं
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