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________________ गणधर गौतम : परिशीलन मूर्ख बना रहा है । मानता हू, मानव तो माया जाल में प्राकर मूर्ख बन सकता है, देवता नहीं। किन्तु, यहाँ तो सारे के सारे देवता भी इसके जाल में फंसकर भटक रहे हैं । चाहे कोई भी हो, मेरे अगाध वैदुष्य के समक्ष कोई टिक नहीं सकता। जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं वैसे ही इस पृथ्वीतल पर मेरी विद्यमानता में दूसरे सर्वज्ञ का अस्तित्व नहीं रह सकता । वह कैसा भी सर्वज्ञ हो, इन्द्रजाली हो, मायावी हो, मैं जाकर उसके सर्वज्ञत्व को, मायावीपन को ध्वस्त कर दूंगा, छिन्न-भिन्न कर दूंगा। मेरे सन्मुख कोई भी कैसा भी क्यों न हो, टिक नहीं सकता । तो, मैं चलूं उस तथाकथित सर्वज्ञ का मान-मर्दन करने । भ्रम-निवारण-अभिमानाभिभूत होकर इन्द्रभूति तत्क्षण ही यज्ञवेदी से उतरे, अपनी शिखा में गांठ बांधी, अन्तरीय वस्त्र ठीक किया, खड़ाऊ पहने और मदमत्त हाथी की चाल से चल पड़े महावीर के समवसरण की ओर । अन्य दसों याज्ञिकाचार्य देखते ही रह गये । इन्द्रभूति के पीछे-पीछे उनके ५०० छात्र शिष्य भी अपने गुरु का जय-जयारव करते हुए एवं वादीगजकेसरी, वादीमानमर्दक. वादीघूकभास्कर, वादीभपंचानन, सरस्वतीकण्ठाभरण आदि विरुदावली का पाठ करते हुए चल पड़े । अहंकार और ईर्ष्या मिश्रित मुख-मुद्रा धारक प्राचार्य को त्वरा के साथ गमन करते देखकर, नगरवासी स्तम्भित से रह गए। कुछ कुतूहल प्रिय नागरिक मजा देखने उनके पीछे-पीछे चल पड़े। सर्वज्ञ दर्शन-पापा नगरी से बाहर निकल कर इन्द्रभूति ज्योंही महसेन वन की ओर बढ़े, तो देवनिर्मित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003811
Book TitleGautam Ras Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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