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________________ गौतम रास : परिशीलन १११ के कारण इन्द्रभूति का शरीर कम्पायमान हो गया और अभिमान के आवेश में आकर वे इस प्रकार बोलने लगे : - ||१४|| मूढा लोक प्रजाण्युँ बोलइ, सुर जाणंता इम कंद डोलइ । मूं प्रागल कउ जाण भणिज्जइ, मेरु श्रवइ किम उपमा दिज्जइ ||१५| मूर्ख मानव तो अज्ञान के कारण वृथा वचन बोल जाते हैं, किन्तु देवगण तो विज्ञ कहलाते हैं, फिर ये क्यों भटक रहे हैं ? अर्थात् यज्ञशाला को छोड़कर भागे क्यों भागे जा रहे हैं ? क्या इस ब्रह्माण्ड में मुझ से अधिक कोई विज्ञ / मनीषी है ? क्या मेरु की तुलना सामान्य पदार्थ - राई -सरसों से की जा सकती है ? ।।१५।। (वीर जिणवर) वीर जिणवर नाण संपन्न, पावापुरि सुरमहिय, Jain Educationa International पत्त नाह संसार-तारण, तह देवहि निम्मविय, समवसरण बहु सुक्खकारण । जिणवर जगि उज्जोयकर, तेजहि कर दिनकार । सिंहासरण सामि ठव्यउ हुनउ सुजय जयकार ॥ १६ ॥ पद्यांक ८ से १५ तक का सारांश प्रस्तुत करते हुए कवि कहता है : - सर्वज्ञ बनकर देवेन्द्रों से पूजित जिनेन्द्र वीर प्रभु पावापुरी पधारे। संसारतारक स्वामी को प्राप्त कर और अत्यधिक सुख का कारण मानकर देवों ने वहाँ - पावापुरी में समवसरण की रचना की । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003811
Book TitleGautam Ras Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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