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गौतम रास : परिशीलन
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के कारण इन्द्रभूति का शरीर कम्पायमान हो गया और अभिमान के आवेश में आकर वे इस प्रकार बोलने लगे : - ||१४||
मूढा लोक प्रजाण्युँ बोलइ,
सुर जाणंता इम कंद डोलइ ।
मूं प्रागल कउ जाण भणिज्जइ, मेरु श्रवइ किम उपमा दिज्जइ ||१५|
मूर्ख मानव तो अज्ञान के कारण वृथा वचन बोल जाते हैं, किन्तु देवगण तो विज्ञ कहलाते हैं, फिर ये क्यों भटक रहे हैं ? अर्थात् यज्ञशाला को छोड़कर भागे क्यों भागे जा रहे हैं ? क्या इस ब्रह्माण्ड में मुझ से अधिक कोई विज्ञ / मनीषी है ? क्या मेरु की तुलना सामान्य पदार्थ - राई -सरसों से की जा सकती है ? ।।१५।।
(वीर जिणवर) वीर जिणवर नाण संपन्न, पावापुरि
सुरमहिय,
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पत्त नाह संसार-तारण, तह देवहि निम्मविय,
समवसरण बहु सुक्खकारण ।
जिणवर जगि उज्जोयकर, तेजहि कर दिनकार । सिंहासरण सामि ठव्यउ हुनउ सुजय जयकार ॥ १६ ॥
पद्यांक ८ से १५ तक का सारांश प्रस्तुत करते हुए कवि कहता है : - सर्वज्ञ बनकर देवेन्द्रों से पूजित जिनेन्द्र वीर प्रभु पावापुरी पधारे। संसारतारक स्वामी को प्राप्त कर और अत्यधिक सुख का कारण मानकर देवों ने वहाँ - पावापुरी में समवसरण की रचना की ।
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