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गौतम रास : परिशीलन
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क्रोध मान माया मद पूरा, जायइ नाठा जिम दिन चोरा । देवदुंदुभि अकासइ वाजी, धरम नरेसर प्राव्यउ गाजी ॥१०॥
जिस प्रकार दिन में चोर भाग खड़े होते हैं वैसे ही क्रोध, मान, माया, और मद भी परिवार सहित अति दूर खिसक गये । आकाश में देव-दुन्दुभियाँ बजने लगों और "धर्म नरेन्द्र" आ गया है घोष से नभो-मण्डल गूंज उठा ।।१०।।
कुसुम वृष्टि विरचइ तिहं देवा, चउसठ इन्द्रज मांगइ सेवा । चामर छत्र सिरोवरि सोहइ, रूवहि जिणवर जग सहु मोहइ ॥११॥
वहाँ समवसरण में देवों ने सुगन्धित फूलों की वर्षा की। चौसठ इन्द्र प्रभु से चरण-सेवा की याचना/चाहना करने लगे। प्रभु के दोनों पोर देवगण चामर ढुलाने लगे और शिर पर छत्र शोभित होने लगा । प्रभु के स्वरूप अतिशय से समग्र विश्व मोहित हो रहा था ।।११।।
उवसम रस भर वर वरसंता, जोजन वारणी वखाण करता। जाणवि वद्धमारण जिण पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया ॥१२॥
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