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गौतम रास : परिशीलन .
चरम जिणेसर केवलनाणी, चउविह संघ पइट्ठा जाणी। पावापुरी सामी संपत्तउ,
चउविह देव-निकाहि जुत्तउ ॥८॥ इस अवसर्पिणी काल के चरम अन्तिम जिनेश्वर श्रमण भगवान् महावीर केवलज्ञानी बनने के बाद अपने तीर्थ/चतुर्विध संघ की प्रतिष्ठा/स्थापना करने हेतु चारों प्रकार के देवनिकायों (भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों) से परिवृत होकर पावापुरी नगरी पधारे ॥८॥
पद्यांक ८ से १५ तक में १६ सोलह मात्रा का पादाकुलक (चौपाई) नामक छन्द है । यह छन्द भी चतुष्पदी है, चार चरणों वाला है । प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ हैं
देवहि समवसरण तिहं कोजइ, जिण दीठइ मिथ्यामति छीजइ । त्रिभुवन गुरु सिंहासण बइठा, ततखिण मोह दिगंत पइट्ठा ॥६॥
उस समय वहाँ पर देवों ने समवसरण की रचना की। इसके दर्शनमात्र से मिथ्यामत का अन्धकार नष्ट हो जाता है । समवसरण के मध्य में स्थापित सिंहासन पर त्रिभुवन के गुरु स्वामी विराजमान हुए। उस समय मोहादि अन्तरंग शत्रु तत्क्षण ही दशों दिशाओं में पलायन कर गये, भाग खड़े हुए ।।६।।
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