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________________ १०८ गौतम रास : परिशीलन . चरम जिणेसर केवलनाणी, चउविह संघ पइट्ठा जाणी। पावापुरी सामी संपत्तउ, चउविह देव-निकाहि जुत्तउ ॥८॥ इस अवसर्पिणी काल के चरम अन्तिम जिनेश्वर श्रमण भगवान् महावीर केवलज्ञानी बनने के बाद अपने तीर्थ/चतुर्विध संघ की प्रतिष्ठा/स्थापना करने हेतु चारों प्रकार के देवनिकायों (भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों) से परिवृत होकर पावापुरी नगरी पधारे ॥८॥ पद्यांक ८ से १५ तक में १६ सोलह मात्रा का पादाकुलक (चौपाई) नामक छन्द है । यह छन्द भी चतुष्पदी है, चार चरणों वाला है । प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ हैं देवहि समवसरण तिहं कोजइ, जिण दीठइ मिथ्यामति छीजइ । त्रिभुवन गुरु सिंहासण बइठा, ततखिण मोह दिगंत पइट्ठा ॥६॥ उस समय वहाँ पर देवों ने समवसरण की रचना की। इसके दर्शनमात्र से मिथ्यामत का अन्धकार नष्ट हो जाता है । समवसरण के मध्य में स्थापित सिंहासन पर त्रिभुवन के गुरु स्वामी विराजमान हुए। उस समय मोहादि अन्तरंग शत्रु तत्क्षण ही दशों दिशाओं में पलायन कर गये, भाग खड़े हुए ।।६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003811
Book TitleGautam Ras Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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