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गौतम रास : परिशीलन
हुई है। इसी कारण कह सकते है कि हा, ! विधाता ने भी रम्भा, पद्मा, गौरी, गंगा और रति के रूप-सौन्दर्य की रचना करते समय उनमें क्रमशः मादकता, ऐश्वर्य, सतीत्व, पवित्रता और रमणीयता आदि केवल एक-एक गुण का सन्निवेश कर उनको छला है । अर्थात् देवांगनाओं की रूपराशि और गुण भी उनके समक्ष तुच्छ हैं ।।५।।
न य बुध न य गुरु कविण कोय जसु प्रागल रहियउ, पंच सयां गुण पात्र छात्र होंडइ परिवरियउ । करिय निरंतर यज्ञ करम मिथ्यामति मोहिय, अविचल होस्यइ चरम नाण दंसणह विसोहिय ॥६॥
इन्द्रभूति सोचते थे कि विश्व में मेरे वैदुष्य एवं प्रतिभा के समक्ष न तो कोई विद्वान् है और न कोई मेरा गुरु-स्थानीय हो सकता है तथा न कोई कविपुंगव है कि जिनका सामोप्य मैं स्वीकार कर सकू, अर्थात् वे स्वयं को सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र एवं मनोषो मूर्धन्य समझते थे । गुण सम्पन्न ५०० सुयोग्य छात्रों को शिक्षा प्रदान करते हुए उनके साथ परिभ्रमण करते थे। मिथ्यावासित मति/बुद्धि होने के कारण ये निरन्तर यज्ञ-कर्म करते रहते थे, अर्थात् कर्मकाण्डो विद्वान् थे । कवि कहता हैयही इन्द्रभूति चरम तीर्थंकर महावीर का सामीप्य प्राप्त कर, दर्शन-विशृद्धि पूर्वक चरम-नाण| केवल ज्ञान प्राप्त कर अविचल मोक्ष पद को प्राप्त करने वाले हैं ।।६।।
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