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________________ १०६ गौतम रास : परिशीलन हुई है। इसी कारण कह सकते है कि हा, ! विधाता ने भी रम्भा, पद्मा, गौरी, गंगा और रति के रूप-सौन्दर्य की रचना करते समय उनमें क्रमशः मादकता, ऐश्वर्य, सतीत्व, पवित्रता और रमणीयता आदि केवल एक-एक गुण का सन्निवेश कर उनको छला है । अर्थात् देवांगनाओं की रूपराशि और गुण भी उनके समक्ष तुच्छ हैं ।।५।। न य बुध न य गुरु कविण कोय जसु प्रागल रहियउ, पंच सयां गुण पात्र छात्र होंडइ परिवरियउ । करिय निरंतर यज्ञ करम मिथ्यामति मोहिय, अविचल होस्यइ चरम नाण दंसणह विसोहिय ॥६॥ इन्द्रभूति सोचते थे कि विश्व में मेरे वैदुष्य एवं प्रतिभा के समक्ष न तो कोई विद्वान् है और न कोई मेरा गुरु-स्थानीय हो सकता है तथा न कोई कविपुंगव है कि जिनका सामोप्य मैं स्वीकार कर सकू, अर्थात् वे स्वयं को सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र एवं मनोषो मूर्धन्य समझते थे । गुण सम्पन्न ५०० सुयोग्य छात्रों को शिक्षा प्रदान करते हुए उनके साथ परिभ्रमण करते थे। मिथ्यावासित मति/बुद्धि होने के कारण ये निरन्तर यज्ञ-कर्म करते रहते थे, अर्थात् कर्मकाण्डो विद्वान् थे । कवि कहता हैयही इन्द्रभूति चरम तीर्थंकर महावीर का सामीप्य प्राप्त कर, दर्शन-विशृद्धि पूर्वक चरम-नाण| केवल ज्ञान प्राप्त कर अविचल मोक्ष पद को प्राप्त करने वाले हैं ।।६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003811
Book TitleGautam Ras Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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