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________________ गौतम रास : परिशीलन १०५ जिनके नेत्र, मुख, हाथ और पैरों की अरुणिमा से लज्जित होकर कमलों ने जल में निवास कर लिया था, जिनके प्रभापूर्ण तेज से भ्रमित होकर तारागण, चन्द्र और सूर्य आकाश मण्डल में भ्रमण करने लगे थे, जिनके अतुलनीय रूप-सौन्दर्य से पराजित होकर मदन-कामदेव अनंग/शरीरहीन बनकर इन्हीं के शरीर में समाविष्ट हो गया था । धैर्य और गाम्भीर्य में ये क्रमशः मेरु की उत्तुंगता और समुद्र की गहनता से भो अधिक बढ़े-चढ़े थे । अथवा इनकी प्रशस्ततम धोरता और गम्भीरता के समक्ष अपने को न्यून समझकर दोनों ने अपनी चंक्रमण/गतिशीलता का त्याग कर, गहन स्थिरता धारण कर मेरु ने पर्वत का और सागर ने क्षारत्व धारण कर पृथ्वी का प्राश्रय ले लिया था ।।४।। पेखवि निरुवम रूव जास जण जम्पइ किचिय, एकाकी किल भित्त इत्थ गुण मेल्या संचिय । अहवा निच्चय पुव्व जम्म जिणवर इण अंचिय, रम्भा पउमा गउरि गंग रति हा ! विधि वंचिय ॥५॥ इनके अतुलनीय रूप-सौन्दर्य राशि को देखकर जन-समूह विचार करता है, कहता है कि इस युग में असाधारण रूपधारक ये एकमात्र हैं, अन्य कोई भी दृष्टिप4 में नहीं पाता है । और, विश्व में जितने भी अलौकिक गुण हैं उनका संकलन कर विधाता ने इनमें हो स्थापित कर दिये हैं, अर्थात् ये गुणों के भण्डार हैं । अथवा निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन्होंन पूर्व जन्म में जिनेश्वर देवों की अचेना का थो उसो के फलस्वरूप इन्हें निरुपम-उपमा रहित रूप-सौन्दर्य और गुण राशि प्राप्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003811
Book TitleGautam Ras Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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