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गौतम रास : परिशीलन
अपभ्रंश के रीति ग्रन्थों में विविध छन्दों के प्रयोग को ही रासो प्रबन्ध का आधारभूत लक्षण बताया गया है। विरहांक रचित "वृत्त-जाति-समुच्चय" (४/३८) में कहा गया है
अडिलाहि दुवहएहि व मत्तारड्डहि तह अ ढोसाहि । बहुएहिं जो रइज्जइ सो भण्णइ रासो णाम ।
जिसमें बहुत से अडिल्ला, दोहा, मात्रा रड्डा और ढोसा छन्द होते हैं-ऐसो रंजक रचना "रासक" कहलाती है ।
स्वयंभू (सं० ६५०) ने अपने ग्रन्थ “स्वयंभू छंदस्" (८/२४) में लिखा है:
घत्ता छड्डणिग्राहिं पद्धडिआहिं सुअण्णरूएहिं । रासाबंधो कव्वे जणमण-अहिरामओ होइ ।।
अर्थात् काव्य में “रासाबंध" अपने घत्ता, छड्डुणिया, पद्धडिया तथा अन्य रूपकों (वृत्तों) के कारण "जनमन अभिराम" होता है।
प्राचीन रास-परम्परा के अन्तर्गत ही “गौतम-रास" एक उल्लेखनीय कृति है । युगप्रधान जिनकुशलसूरि के दीक्षित शिष्य विनयप्रभोपाध्याय द्वारा विरचित "गौतम रास" (गोयम गुरु रास) वि० सं० १४१२ की कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन लिखा गया था (पद्य संख्या ४५) । यह तिथि प्रमुख गणधर गौतम स्वामी के कैवल्य ज्ञान प्राप्ति का दिन है । अतः जैन-परम्परा में इस दिवस का विशेष महत्व है।
गौतम रास प्राचीन मरु-गुर्जर भाषा में रचित रास परम्परा का धार्मिक काव्य ग्रन्थ है । जैन समाज में इसका
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