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गौतम रास : साहित्यिक पर्यालोचन
"रासक" शब्द अपभ्रंश में "रासउ" हुआ और मध्यकालीन राजस्थानी तथा व्रजभाषा में "रासौ" होकर आधुनिक काल में "रासो" के रूप में प्रचलित हो गया। रासो की उपलब्ध प्राचीनतम प्रति (लिपिकाल संवत् १६६७ ) में ग्रन्थ उल्लेख "रासउ" नाम से ही हुआ है। हेमचन्द्र ने “काव्यानुशासन" में काव्य के गेय भेदों में "रासक" का परिगणन किया है । मूलतः "रास" नृत्य का ही एक रूप था । कृष्ण और गोपियों का रास नृत्य प्रसिद्ध है । हारावली कोष में रास का अर्थ "गोदुहां क्रीड़ा" अर्थात् गोपों का खेल - विशेष दिया हुआ है ।
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आगे चलकर रास- नृत्य के साथ गीतों का - गेय पदों का मेल हुआ जिसे अभिनय के साथ प्रस्तुत किया जाने लगा । रास लीला इसी प्रकार का गेय-नाट्य है । धीरे-धीरे रास के साथ गाये जाने वाले गीत कथा प्रधान होने लगे । कालांतर में नृत्य का अंश गौण हो गया और कथा काव्य को ही रास या रासक कहा जाने लगा । प्राचीन राजस्थानी और गुजरातो में यह परिपाटी जैन विद्वानों ने चलाई ओर विपुल परिमाण में "रास साहित्य" की रचना को । जैनों से यह शैला भाट, चारण प्रादि राज दरबारों से सम्बद्ध कवियों ने ग्रहण की । इनकी रचनाओं में वोर-कार्यों और युद्धों का वर्णन अनिवार्य अग बन गया | भाटों ने अपने ग्रन्थों में कथानायक के नाम के साथ "रासो" शब्द का प्रयोग अपनाया । इस प्रकार रासो साहित्य का विकास जैन कविया द्वारा रचित "रास साहित्य " से हुआ | छन्दों को विविधता रास-परम्परा में भी थी और रासो-परम्परा में भी । अन्तर केवल इतना हुआ कि रास परम्परा में गेय छन्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में था जबकि रासा - साहित्य में पाठ्य छन्दों का ही प्राधान्य है ।
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