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गणधर गौतम : परिशीलन
विद्वान् हुए हैं, जिन्होंने संस्कृत और राजस्थानी भाषा के साहित्य को पूर्णरूपेण समृद्ध बनाया है । आज भी शाखा के कुछ यति विद्यमान हैं । वैसे विनयप्रभ की शिष्य परम्परा में अन्तिम यति श्यामलालजो के शिष्य यति विजयचन्द्र हुए, जो कि बोकानेर को बड़ी गद्दो पर जिनविजयेन्द्रसूरि के नाम से श्रीपूज्य बने थे । इनके पश्चात् विनयप्रभ की परम्परा लुप्त हो गई है ।
गौतमरास की भाषा
"गौतमरास" म - गुर्जर अपभ्रंश की उत्तरवर्ती काल की रचना है । अपभ्रंश की टकसाली शैली का प्रयोग इसमें नहीं है, कहीं-कहीं प्रभाव अवश्य है । देशी भाषाओं का उदय हो रहा था । इसे पूरी तरह से पश्चिमी राजस्थानी भाषा की रचना तो नहीं कहा जा सकता; पर उस काल की पश्चिमी राजस्थान का, जो गुर्जर भाषा से अत्यधिक निकट है, प्रभाव अवश्य है ।
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इस रचना में पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित अनेक शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है । यथा -- धन ( धन्य ), चउदह ( चतुर्दश), कल्लाण (कल्याण), करिज्जइ ( करीजे), विलसइ ( विलसे) पूनम ( पूर्णिमा), पढम ( प्रथम ), नयरी (नगरी), होसइ ( होसी - भविष्यति ), प्रावियो ( आया ), होया ( होंगे), वयण ( वचन ), थाप्या (स्थापित ), डोलइ ( डोले ), दिज्जइ ( दीजे ) प्रादि ।
गुर्जर भाषा के रूपों का भी प्रभाव नहीं है । यथाइणि ( इस ), नरवई ( नरपति), गिवासे ( गृहवासे),
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