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________________ 64/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन ऐसा प्रतीक है, जो अहिंसा के सूक्ष्म भावें को व्यक्त करता है। यदि नेमिनाथ ने जंगल के तण खानेवाले मूक प्राणियों को हिंसा से बचाया था. तो पार्श्वनाथ ने एक कदम आगे बढ़कर विषैले नाग की रक्षा भी अहिंसक दृष्टि से आवश्यक मानी। क्योंकि प्राणी स्वभाव का कैसा भी हो. आकरण उसका वध करने का अधिकार किसी बड़े से बड़े और धार्मिक व्यक्ति को भी नहीं है। भगवान् महावीर का जीवन-चरित्र अहिंसा के स्वरूप को और अधिक उजागर बनाता है। उन्होंने सर्प या संगम देवता द्वारा निर्मित विषधर नाग पर सहजता से और निर्भयता पूर्वक विजय प्राप्त कर यह स्पष्ट कर दिया था कि शक्तिशाली व्यक्ति की भी हिंसात्मक वृत्ति टिकाऊ लही. क्षणिक ही होती है। अहिंसक चित्त निरंतर विजयी रह सकता है। महावीर अहिंसा के विस्तार के लिए उसके मूलभूत कारणो तक पहुँचे हैं। उनके जीवन की हर घटना दूसरे के अस्तित्व की रक्षा करते हुए एव उसके भी मन को न दुखाते हुए घटित होती है। संभवतः परिग्रह, अनावश्यक संग्रह दूसरे को पीड़ा पहुँचाने में सबसे बड़ा कारण है। इसीलिए भगवान् अहावीर ले पाचवें-व्रत अपरिग्रह को एक नयी दिशा प्रदान की। अनेकान्तवाद द्वारा उन्होंने मानसिक हिंसा को भी तिरोहित करने का प्रयत्न किया और वीतरागता द्वारा वे आत्मिक अहिंसा के प्रतिष्ठापक बने। हिंसा के विभिन्न रूप : प्राकृत-कथा-साहित्य में युद्ध, प्राणी-वध एवं मनुष्य-हत्या आदि के अनेक प्रसंग प्राप्त होते है। इनको पढ़ते समय यह प्रश्न उठता है कि अहिंसक-समाज द्वारा निर्मित इस साहित्य में हिंसा का इतना सूक्ष्म वर्णन क्यों और किसलिए हुआ ? प्राकृत के प्राचीन आगम-ग्रन्थों में सूत्रकृतांग आदि पें मास-विक्रय के विभिन्न उल्लेख है। विपाकसूत्र में अण्डे का व्यापार, मछली का व्यापार आदि की विस्तृत जानकारी दी गई है। आवश्यकचूर्णि. वृहत्कल्पभाष्य, राजप्रश्नीयसूत्र आदि ग्रन्थों से पता चलता है कि ईर्ष्या, क्रोध, अपमान आदि के कारण, माता पुत्र की, पत्नी पति की, बहू सास की, मंत्री राजा की हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे। प्राकृत-कथाओं में वर्णित प्राणी-वध, मनुष्य-हत्या, शिकार, युद्ध आदि के ये प्रसंग इस बात की सूचना देते हैं कि तीर्थंकरों ने जिस अहिंसा-धर्म का प्रतिपादन किया है, उसे यदि यर्थाथ रूप में नहीं समझा गया, तो उपर्युक्त परिणाम ही होने हैं। हिंसा और अहिंसा में अधिक दूरी नहीं है। सिक्के के दो पहलू के समान इनका अस्तित्व है। केवल व्यक्ति की भावना ही हिंसा और अहिंसा के बीच सीमा-रेखा खींचने में सक्षम है। अतः प्राकृत-कथा-साहित्य में वर्णित हिंसात्मक वर्णनों की बहुलता इस बात की द्योतक है कि महावीर के बाद अहिंसक समाज सर्वव्यापी नहीं हो सका। किन्तु उस अन्धकार में भी उसके हाथ में अहिंसा का दीपक अवश्य था। जिसकी कुछ किरणें जैन-साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध होती हैं। अहिंसा के प्रकाश-स्तम्भ : जैन-कथा-साहित्य में संभवतः भरत एवं बाहुबली की कथा सर्वाधिक प्रभावकारी अहिंसक कथा है। भरत और बहुबली के जीवन-चरित्र से यह पहली बार पता चलता है कि युद्ध की भूमि में भी अहिंसक-युद्ध का प्रस्ताव हो सकता है। दोनों की सेनाओं के हजारों प्राणियों के वधके प्रति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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