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________________ सप्तम कथाओं में अहिंसा दृष्टि प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रश-भाषाओं की प्राचीन कथाओं में अहिंसा के स्वरूप, महत्त्व एवं अहिंसा-पालन के परिणामे को प्रतिपादित किया गया है। तीर्थंकरों के जीवन-चरित्र एवं महापुरुषों की कथाओं में अहिंसा के अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं। वस्तुतः सिद्धान्त ग्रन्थों में प्राप्त अहिंसा के स्वरूप का व्यावहारिक रूप जैन कथा-साहित्य में देखा जा सकता है। यह कथा-साहित्य विशाल है। अतः प्राकृत की कुछ प्रतिनिधि कथाओं के आधार पर ही अहिंसा के स्वरूप को समझने का यहाँ प्रयत्न किया जा सकता है। प्राकृत कथा-साहित्य में तीर्थंकरों के जीवन की अनेक घटनाएँ वर्णित है। अहिंसा से सम्बन्धित कुछ प्रसंग यहाँ विचारणीय हैं। भगवान ऋषभदेव के समय में मानव की आवश्यकताएँ कम थीं। अतः हिंसा का वातावरण भी कम था। लेकिन जैसे-जैसे मानव सामाजिक-प्राणी होने लगा, तो उसे सहिष्णुता, अनुकम्पा आदि अहिंसक गुणों की अधिक आवश्यकता पड़ी। कल्पवृक्षों की कमी अर्थात् वनसम्पदा का जीवन के लिए अपर्याप्त होना कहीं प्राणियों के परस्पर वध को बढ़ावा न दे, मासाहार की प्रमुखता न हो जाय, इस दृष्टि से ऋषभदेव ने सामाजिकता की ओर बढ़ते हुए उस समय के मानव को कृषि एवं अन्य जीविका के साधनों की शिक्षा प्रदान की थी। मनुष्य जंगली, क्रूर एवं असुन्दर ही न बना रहे, इसलिए उन्हेंने विभिन्न कलाओं और शिल्पों की ओर भी मानव को प्रेरित किया। अतः जीवन की आध्यात्मिकता की समझ को जागृत करने के लिए भगवान् ऋषभदेव के ये अहिंसक प्रयत्न थे। तीर्थंकर नेमिनाथ की प्राणियों के प्रति अनुकम्पा इतिहास प्रसिद्ध है। उनके जीवन की कथा तो मात्र इतना ही कहती है कि पशुओं के बाड़े को देखकर उनके अकारण वध की सूचना से उन्होंने तपस्वी-जीवन धारण कर लिया। किन्तु, नेमिनाथ के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन अचानक और अकारण नहीं हुआ था। इस घटना के द्वारा कृष्ण उन्हें कुछ सिखाना चाहते थे। किन्तु नेमिनाथ अपने अहिंसक चिन्तन के द्वारा सारे जगत् को ही इस घटना द्वारा बहुत कुछ सिखा गये। जन-जन के अन्तर्-मानस में प्रणियों पीड़ा की अनुभूति इतनी तीव्रता के साथ शायद पहली बार ही अनुभव की गई होगी। मासाहार के विरोध में नेमिनाथ का यह सफल अहिंसक प्रयोग था।2 और संभवत: उसका ही यह प्रभाव था कि नेमिनाथ के समय में साधुओं का जब चातुर्मास होता था, तो वासुदेव श्री कृष्ण ने चतुर्मास में राज्य-सभा के आयोजनों को बंद करा दिया था, ताकि आवागमन, भीड़-भाड़ आदि के कारण प्राणियों की अधिकतम हिंसा से बचा जा पार्श्वनाथ का जीवन अहिंसा का जीता-जागता उदाहरण है। उन्हेंने अपने पूर्व-जन्म और तपस्वी-जीवन में क्षमा की साकार मूर्ति को उपस्थित किया था। वध, क्रोध, वैर, बदला आदि अनेक हिंसा के कार्यों का सामना उन्होंने अहिंसात्मक साधनों से किया। तपस्वी कमठ द्वारा प्रज्वालत ज्याग्न मे जल रहे नाग की रक्षा उन्होंने अपने कुमार-जीवन में ही की थी। यह एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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