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________________ आचारांग व्याख्याओं की कथाएँ/49 है। वहां रानी एक लंगड़े के प्रेम में पड़ कर राजा को नदी में बहा देती है। अन्त में वह सुकुमारिका सब के द्वरा लज्जित की जाती है। 32. गुणसेन-अग्निश :- अझानी के संसर्ग से बैर बढ़ता है। किसी की हंसी नहीं उड़ानी चाहिये। यथा-गुणसेन द्वरा अग्निशर्मा की हंसी उड़ायी गयी थी तब उसने गुणसेन के साथ नौ भवों का वैर बांधा था हरिभद्र की समराइच्चकहा में इस कथा का विस्तार हुआ है। 33. कपिल का लोभ :- जो मनुष्य अनेक चित्तवाला होता है वह स्वयं दुखी होता है एवं दूसरों को दुख देता है। जैसे दरिद्र कपिल के द्वरा धन मांगने के प्रसंगों में अपने चित्त को कई बार बदला गया। उसका लोभ इतना बढ़ा कि वह पूरे जनपद को दुःख देने वाला बन गया। ____34. उदयसेन राजा के पुत्र :- भाव सम्यक्त्व के प्रतिपादन के प्रसंग में आचारांग नियुक्ति गा. 219 की टीका में शीलांक द्वारा उदयसेन के दो पुत्रों की कया प्रस्तुत की गयी है। . उदयसेन राजा था। उसके दो पुत्र थे- वीरसेन एवं सूरसेन। उनमें वीरसेन अन्धा था। उसने गान्धर्व एवं वाद्य कला में निपुणता प्राप्त की। दूसरा राजकुमार सूर- सेन धनुर्वेद में निपुण हो गया। उसकी सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। तब वीरसेन ने भी राजा से कहा कि मैं भी धनुर्विद्या सीखूगा। राजा की आज्ञा से कुशल गुरु से सीखकर वह शब्दभेदी धनुर्विद्या में निपुण हो गया। एक बार वह शत्रु की सेना को पराजित करने युद्ध में भी गया। किन्तु वहां शत्रु को जब ज्ञात हो गया कि वीरसेन अन्धा है तो उन्होंने बिना कोई शब्द किये उस पर आक्रमण कर उसे पकड़ लिया। तब सूरसेन ने अपने पराक्रम से जाकर उसे शत्रु से छुड़ाया। अतः अभ्यस्त विज्ञानक्रिया होने पर भी आंख के न होने पर भी इच्छित कार्य की सिद्धि वीरसेन को नहीं हुई, उसी प्रकार सम्यादर्शन के अभाव में क्रियाकाण्डी मिथ्यादृष्टि की मुक्ति नहीं है। इसलिए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए। 35. रोहगुप्त मन्त्री द्वारा धर्म-परीक्षा :- सभी प्राणियों को दुःख प्रिय नहीं है। अतः उन्हें नहीं मारना चाहिये। उन्हें मारने में दोष है। जो यह कहते हैं कि प्राणी-हत्या में दोष नहीं है, उनके वचन अनार्य हैं। इस बात को रोहगुप्त मन्त्री ने धर्म-परीक्षण द्वारा प्रमाणित किया है। यथा: चम्पा नगरी में सिंहसेन राजा था। उसके मन्त्री का नाम रोहगुप्त था। वह आर्हत् धर्म को मानने वला था। एक बार राजा ने सच्चे धर्म को जानने की इच्छा व्यक्त की। तब रोहगुप्त ने धर्मिकों की परीक्षा के लिए एक समस्या दी (सकुण्डलं वा वयणं न व)।इसकी पूर्ति कई लोगों की। किन्तु अन्त में आर्हत् धर्म के क्षुल्लक ने इसका समाधान किया।: खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स। किं मज्झ एएण विचिंतिएणं, सुकुंडलं वा वयणं न वत्ति -शी.पू. 414 राजा ने जब उन क्षुल्लक से धर्म का स्वरूप पूछा तो वह सूखे और गीले कीचड़ के दो गोले दीवाल पर फेंक कर चल दया। राजा के पूछने पर उसने समझाया कि जैसे इनमें से जो गीला गोला है वही दीवाल पर चिपका है। उसी प्रकार जो व्यक्ति कामनाओं की लालसा से युक्त हैं, वे ही कर्म बांधते हैं। विरक्त, व्यक्ति सूखे गोले की तरह कर्मों से नहीं चिपकते। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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