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________________ 50/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन साधु के उत्थान-पतन का क्रम : 36. नंदिषेण :- नंदिषेण एक साधु था। किन्तु कामभोगों के आकर्षण से उसने साधु धर्म छोड़ दिया और वह एक वेश्या के साथ रहने लगा था। आवश्यक चूर्णि में पार्श्वनाथ के अनुयायी नंदिषण स्थविर का उल्लेख है, जो उक्त नंदिषेण से भिनन होना चाहिए। 37. उदायिनृप :- आवश्यकचूर्णि में कूणिक के पुत्र उदायी का उल्लेख है, जिसने पाटलिपुत्र बसाया था। उदायी नृप ने दीक्षा छोड़कर फिर उसे ग्रहण किया तो वह गृहस्थ के तुल्य ही है। कामभोगों से कलह और आसक्ति': स्त्रियों में कामभेग की भावना पहले दुखदायी और बाद में स्पर्शसुखवाली होती है।49 जैसे 38. (क) वणिक इन्द्रदत्त :- इन्द्रदत्त राकुमारी के ऊपर तांबोल फेंक कर चला गया। यह देख कर सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। राजा ने इन्द्रदत्त को मारने का आदेश दिया। किन्तु राजकुमारी ने उसे बचा लिया और दोनों का विवाह हो गया। 39. (ख) ललितागक :- आचार्य हरिभद्र की समराइच्चकहा में ललितांग को कामशास्त्र का ज्ञाता और समरादित्य का मित्र बताया है। कुमारपालप्रतिबोध में भी ललितांग का नाम कामी व्यक्ति के रूप में हुआ है, जिसे शीलवती द्वारा दण्ड दिया गया था। ___40. जिनशत्रु राजा के दो पुत्र :- जैसे पक्षी अपने बच्चों को जन्म से लेकर उनके पंख निकलने तक पालता है, वैसे ही आचार्य अपने शिष्य को भी उसकी प्रवज्या से लेकर उसकी मुक्ति-यात्रा तक उसे सन्मार्ग दिखाता है। किन्तु यदि कोई शिष्य आचार्य का उपदेश न मानकर कुमार्ग पर चलता है तो वह उज्जयिनी के राजा जितशत्रु के पुत्र की तरह होता है। यथा उज्जयिनी के राजा जिंतशत्रु के दो पुत्र थे। उनमें से बड़ा पुत्र धर्मघोष आचार्य के पास दीक्षित हो गया। वहां शास्त्र अध्ययन आदि के द्वारा उसने अपने को तपस्या में लगा दिया। उसने सत्वभावनाओं की भावना की और घोर तपस्या में लग गया। एक बार उसके छोटे भाई ने आचार्य से आकर अपने बड़े भाई के सम्बन्ध में पूछा और उसके दर्शन करना चाहा। किन्तु आचार्य ने उसकी तपस्या के कारण उससे मिलने से मना कर दिया। तब वह छोटा भाई भी वहीं दीक्षित हो गया। किन्तु भाई के प्रेम के कारण वह उसे देखना चाहता था। अपने आचार्य, उपाध्यय, साधु सबके द्वरा रोके जाने पर भी वह बड़े भाई की तरह उस कठोर तप में लीन हो गया। फिर बड़े भाई को देवता आकर बन्दन करते थे, किन्तु छोटे भाई को नहीं। अतः वह उन पर क्रोधित हो गया। इससे देवता भी रुष्ट हुआ और उसने उस छोटे भाई की आंखों निकाल ली। यह देखकर बड़े भाई ने देवता को निवेदन किया कि आप इस अज्ञानी को क्षमा कर इसकी आंखें फिर से ठीक कर दें। देवता ने कहा- अब यह सम्भव नहीं है। तब बड़े भाई ने उसी क्षण उन आंखों के गोलों को लेकर उसकी आंखे ठीक कर दीं। अतः शिष्य को आचार्य की बात माननी चाहिये और आचार्य को अपने शिष्य की रक्षा करनी चाहिये।50 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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