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________________ आचारांग व्याख्याओं की कथाएँ/47 लगवा दी। थी वह प्रदेश आज दण्डकारण्य के नाम से जाना जाता है।26 जैन साहित्य में यह प्रसंग बहुप्रचलित माना जाता है। 15. (ख) बाहुबली (मान में) :- ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली और भरत का युद्ध जैन साहित्य में अहिंसक युद्ध के स्प में चित्रित है। बाहुबली को जब संसार से वैराग्य हो गया तो उन्होंने दीक्षा ले ली। कठोर तपस्या के उपरान्त भी उन्हें केवलज्ञान नहीं हो रहा था। क्योंकि उनके मन में मान था कि मैं कैसे अपने भाइयों के केवलज्ञानी पुत्रों के सामने छगस्थ होकर उन्हें देखूगा।27 तब ब्राह्मी और सुन्दरी के समझाने पर बाहुबली का मान समाप्त हो गया था और उन्हें केवलज्ञान हुआ।28 ___16. (ग) मल्लिस्वामी का जीव (माया में) :- ज्ञाताधर्मकथा में मल्लिकुमारी की कथा वर्णित है। मल्लिस्वामी को स्त्री तीर्थकर इसलिए बनना पड़ा क्योंकि वह पूर्व-जन्म में महाबल अनगार के रूप में अपने साथी अनगारों से माया (कपट) करके उनसे छिपाकर अधिक तपस्या, उपवास आदि करता था।29 आचारांग में मल्लि स्वामी के जीव की इसी घटना का उदाहरण देकर कहा गया है कि साधु को निदान नहीं करना चाहिए। अप्रतिज्ञ रहना चाहिए३० 17. (घ) यति आभासा :- लोभ के उदय से परमार्थ को न जानने वाले 'साम्प्रतक्षिणो यति आभासा मासक्षपणादि की भी प्रतिज्ञा (निदान) करते हैं। यह कथा पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं हुई। जैन साहित्य में इसके अन्य सन्दर्भ ज्ञात नहीं हैं। 18. अप्रतिज्ञ (निदानरहित) वसुदेवः- संयम, अनुष्ठान आदि को करते हुए वसुदेव निदान नहीं करता है। गोचरी आदि में आहार आदि को अपना नहीं मानता है अतः वह अप्रतिज्ञ है। 19. दधिधतिकाद्रमक दृष्टान्तः- द्रमक नामक ग्वाले ने किसी भैस की देखरेख के बदले दूध प्राप्त किया। उसका दही बनाकर वह सोचने लगा कि इसका घी बनाकर उससे धनप्राप्ति, फिर पत्नी, फिर बच्चे, उसके बाद उनकी लड़ाई होगी। फिर मैं उनको पैर से प्रहार करूँगा। इससे वह दही की मटकी ही फूट गयी। द्रमक ने न तो वह दही स्वयं खाया, न किसी पुण्यवान को दिया31 इसी प्रकार कासंकसः (किंकर्तव्यविमूढ) की गति होती है।32 इस द्रष्टान्त का शेखचिल्ली का सपना के रूप में पर्याप्त विकास हुआ है। 20. मम्मणवणिक (लोभ):- किंकर्तव्यविमूढ व्यक्ति दुःख ही पाता है। कहा भी है सोउंसोवणकाले मज्जणकाले य मज्जिङ लोलो। जीमेडं च वराओ जेमणमाले न चाएइ। यहां मम्मणवणिक का दृष्टान्त देखना चाहिए।33 वह लोभी मम्मण माया के वशीभूत होकर ऐसा कार्य करता है, जिससे उसके वैरी बढ़ते हैं। 21. मगधसेना गणिका (कामासक्त):- महा भोगों में जिसकी महती श्रद्धा है वह महाश्रद्धी है। जैसे- धनसार्थवाह और मगधसेना गणिका। राजगृह की यह गणिका धनसार्यवाह के अपार धन और रूप से आकृष्ट होकर उसके पास अभिसार के लिए गयी। किन्तु उसने अपने व्यापार के कारण गणिका की ओर देखा भी नहीं, इससे गणिका उदास हो गयी थी। एक दिन राजा जरासन्ध ने मगधसेना की उदासी का कारण पूछा। तो उसने कहा मैं इस अमर व्यपारी के कारण क्षुब्ध हूँ, जिसे अपनी मृत्यु नहीं दिखती। अपने को अमर समझ कर वह परिग्रह जोड़ने में लगा है।34 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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