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________________ 46/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन 10. प्रद्योत एवं मृगावती प्रसंग :- किस काल में क्या कर्तव्य करना चाहिये, क्या नहीं, इसका विवेक न होने पर अनर्थ होता है। व्यक्ति को दुःख उठाना पड़ता है। जैसे:- उज्जैनी के राजा प्रद्योत की कथा जैन साहित्य में अति प्रसिद्ध है। आचारांग चूर्णि में प्रद्योत जरा धुंधुमार राजा पर आक्रमण करने का और उसके द्वरा कैदी बनाये जाने का वर्णन है। आचारांगटीका में प्रद्योत एवं मृगावती के प्रसंग का उल्लेख है।20। 11. धन सार्थवाह की वृद्धावस्था :- वृद्धावस्था में स्वयं के द्वरा पोषित सन्तान, बहुएं एवं पत्नी भी व्यक्ति की सेवा नहीं करते हैं। वृद्धावस्था स्वयं दुःखों की खान है। इसको एक कथानक द्वारा स्पष्ट किया गया है कौसाम्बी नगरी में अनेक पुत्रों वाला धनवान धनसार्थवाह रहता था। उसने अपनी योग्यता ये पर्याप्त धन कमाया था। उससे उसके पुत्र, पुत्रवधू पत्नी, मित्र आदि सभी सुखी थे। वृद्धावस्था आने पर धनसार्थवाह ने गृहस्थी का भार अपने पुत्रों को सौप दिया। कुछ दिन तक तो बहुओं ने अपने श्वसुर की सेवा की। किन्तु बाद में वे उसमें शिथिलता करने लगी। धन ने इसकी शिकायत अपने पुत्रों से की तो बहुओं ने बिल्कुल ही धन की सेवा बन्द कर दी। उसकी पत्नी ने भी उपेक्षाभाव दिखाया। तब वह धन सोचता है कि वृद्धावस्था दुःखों का भण्डार है। आचारांगचर्णि में धनसार्थवाह एवं उसकी पत्नी भद्रा की एक अन्य कथा भी है।22 12. विषयों में आसक्त ब्रह्मदत्त :- ब्रहमदत्त 22 वें चक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध है। पार्श्वनाथ के पूर्व ब्रह्मदत्त काम्पिलपुर में राज्य करता था। उसकी रानियों में कुसमति आदि प्रमुख थीं। ब्रह्मदत्त कामभोगों को दुष्परिणामों को न जानते हुए उनमें डूबा रहता था। उसके पूर्व-जन्म के भाई मुनि चित्त के समझाने पर भी वह विषयों के भोग से विरत नहीं हुआ। अतः उसे सातवें नरक में जाकर दुःख भोगने पड़े।23 13. विषयों से विरक्त सनत्कुमार :- सनत्कुमार जैसे आत्मज्ञानी विषयों के दुष्परिणमों को जानते हैं। अतः वे विषय-भोगों में लिप्त नहीं होते। सनत्कुमार चतुर्थ चक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध है। सनत्कुमार का वर्णन सबसे सुन्दर एवं आकर्षक युवक के रूप में हुआ है। किन्तु जब उसे अपने स्प का घमण्ड हो गया तभी वह कुरूप एवं बीभत्स बन गया था। किन्तु तब उसने तपस्या करके देव पद प्राप्त किया।24 "अपडिण्ण" की व्याख्या में कथानक : .आचारांग के लोकविभाग अध्ययन के 5वें उद्देश्य में "अपडिण्ण" (सूत्र ) की व्याख्या करते समय कहा गया है कि जिसकी कोई प्रतिज्ञा (निदान) न हो वह अप्रतिज्ञ (अपडिण्ण) है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के उदय से जो व्यक्ति निदान करता है वह प्रतिज्ञा कहलाती है, जो दुःखदायी है।25 इसके कुछ उदाहरण है: 14. (क) स्कन्दधार्य (क्रोध में):- मुनि सुव्रत स्वामी के तीर्थ में स्कन्दाचार्य ने दीक्षा ली थी। एक बार उसके पूर्व जन्म के बैरी पालक ने स्कन्द और उसके शिष्यों को तेल पेरने के यन्त्र से पीड़ित कर दिया था। अतः स्कन्द ने क्रोध में आकर यह निदान किया था कि मैं इस पालक पुरोहित सहित पूरे नगर का विनाश कर दूंगा। अपनी तपस्या के कारण वह मरकर देव हुआ। अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण कर उसने पालक पुरोहित के आवास के समीप 12 योजन में आग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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