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________________ धर्मपरीक्षा - अभिप्राय की परम्परा/107 जिसकी प्रतिक्रिया श्रावकाचार ग्रन्थों के रूप में प्रगट हुई है।25 धर्मिक खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति 8वीं- 10 वीं शताब्दी में इतनी बढ़ी कि अपभ्रश के मुक्तक कवि पारवण्डों पर सीधा प्रहार करने लगे। धर्म-परीक्षा के इन कवियों ने भी पौराणिक धर्म पर तीव्र प्रहार किया। धूतोख्यान का संतुलित व्यंग इन रचनाओं में दूसरा रूप ले लेता है। उसमें कुवलयमालाकहा की यह भावना नहीं है, जहाँ राजा सभी आचार्यों के मत की समीक्षा कर अन्त में उन्हें सम्मान पूर्वक बिदा करता है तथा अपने-अपने धर्म में संलग्र रहने की स्वतन्त्रता देता है। इसके बाद में 17 वीं शताब्दी तक विभिन्न भाषाओं में धर्म-परीक्षा ग्रन्थ लिखे जाते रहे है जो प्रचार-ग्रन्थ अधिक है, काव्य-ग्रन्थ कम। किन्तु इन ग्रन्थों से सत्य को तुलनात्मक दृष्टि से परखने की पद्धति का अवश्य विकास हुआ है, जो वर्तमान अनुसंधान के क्षेत्र में भी अपनायी जाती है। सन्दर्भ 1. प्रो. एच. डी. वेलणकर, जिनरत्नकोश, भूमिका, पूना, 1543 2. उपाध्ये, एनल्स ऑफ द भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट,रजत-जयन्ती अंक भाग 23, 1942 3. कुवलयमालाकहा, पृ. 204-207 4. प्रेम सुमन जैन, कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन, वैशाली, 1975 5. मेक्डोनेल, वैदिक माईथॉलाजी 6. भदन्त आनन्द कोत्सल्यायन, जातक, भाग, 21251 7. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत जैन कथा साहित्य, 1971 8. पेन्जर, द ओशन ऑफ स्टोरीः कथासरित्सागर 9. विमल प्रकाश जैन, जम्बूसामिचरिउ, भूमिका 10. नेमिचन्द्र शास्त्री, हरिभद्र की प्राकृत कथाओं का आलोचनात्मक परिशीलन 11. हीरालाल जैन, मदणपराजयवरिउ 12. देवेन्द्रमनि भगवान महावीर: एक अनशीलन। 13. द्रष्टव्य-सुत्तनिपात, समियसुत्त 14. सूत्रकृतांगवृत्ति 1.12 15. मुनि हेमचन्द्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र, द्वितीय अध्ययन 16. जेकोबी, पउमचरियं, प्रथम भाग 17. संकटाप्रसाद उपाध्याय, कवि स्वयम्भु 18. देवेन्द्र कुमार जैन, अपभ्रंश भाषा और साहित्य, पृ.282-90 19. अग्रवाल, कादम्बरी-एक सांस्कृतिक अध्ययन 20. अग्रवाल, हर्षचरित-एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 197 21. धूर्ताख्यान- इण्ट्रोडक्शन 22. उपाध्ये, भ.ओ. रि.इ. एनल्स भाग 23, 1942 तथा द जैन एण्टीक्वेरी, भाग -9, पृ. 21 23. जा जयरामें आसि विरइय गाह पंबंधि। सा हम्मि धम्मपरिक्ख सा पद्धडिय बंधि।। - घ.प. ह. 101 24. हण्डिकी, यशस्तिलक एण्ड इंडियन कल्चर पृ. 329-360 25. कैलाशचन्द्र शास्त्री, उपासकाध्ययन, भूमिका 26. बच्चह तुबभे, करेह णियय-धम्म-कम्म-किरया-कलावे।' कुव. 207-9 27. राइस, कन्नरीज लिटरेचर पृ. 37 एवं विन्टरनित्स हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, भाग 2, पृ.561 Jain Educationa International For Personal and Private Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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