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________________ 106 / प्राकृत कथा - साहित्य परिशीलन जैनाचार्यों ने किया है। हरिभद्रसूरि ने धर्म-परीक्षा को एक नया मोड़ दिया। उन्होंने असत्य के परिहार के लिए व्यंग को माध्यम चुना। उनके धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ में पुराणों में वर्णित असम्भव और असंगत मान्यताओं का निराकरण पांच धूर्तों की कथाओं द्वारा किया गया है। 21 हरिभद्र द्वारा जैनेतर मतों पर किया गया यह व्यंग ध्वंसात्मक नहीं है, अपितु असंगत बातों के परिहार के लिए सुझाव के रूप में है । सम्भवतः धूर्ताख्यान का यह व्यंग हिन्दू पुराणों के साथ-साथ जैनपुराणों की भी उन अविश्वनीय बातों के प्रति था, जिनका मेल जैनधर्म से नहीं था । सत्य (धर्म) के दोषों की परीक्षा करने की यह एक पद्धति थी, जिसने धर्म-परीक्षा अभिप्राय को गति प्रदान की। जैनाचार्यों द्वारा धर्मपरीक्षा अभिप्राय को अपनाने का प्रमुख कारण था- जैन धर्म के मौलिक स्वरूप को सुरक्षित बनाये रखना । अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा, स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा मुक्ति प्राप्ति का प्रयत्न, जीव और अजीव के बन्धन-मुक्ति की नैसर्गिक प्रक्रिया तथा ध्यान और तप की साधना की अनिवार्यता आदि कुछ जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्तों के विरोध में जो भी सम्प्रदाय व धर्म आता था, उसका खण्डन करना जैन आचार्यों के लिए आवश्यक था। इसके लिए उन्होंने कई माध्यम चुने, जिनमें धर्मपरीक्षा प्रमुख था । उद्द्योतनसूरि ने धूर्ताख्यान के व्यंग के स्थान में एक खुली चर्चा को ही प्रधानता दी। एक साथ सभी आचार्यों की उपस्थिति में उन्होंने धर्म की श्रेष्ठता पर विचार करना उपयुक्त समझा। आठवीं शताब्दी में विश्वविद्यालयों के विकास के कारण सम्भव है. धार्मिक विद्वानों का इस प्रकार का सम्मेलन भी होने लगा हो। धार्मिक आचार्यों द्वारा धर्म का स्वरूप सुनकर राजा का दीक्षित होना भारतीय साहित्य में एक काव्यरूढ़ि है। आचार्यों का स्थान कहीं मन्त्री ले लेते हैं तो कहीं पुरोहित । बौद्ध साहित्य में उल्लेख है कि अजातशत्रु ने धर्म का सही स्वरूप जानने के लिए अपने मन्त्रियों से धर्म सुना था । बौद्ध होने के नाते उसने बौद्ध मतावलम्बी मन्त्री के कथन को प्रधानता दी थी। पुष्पदन्त के महापुराण में राजा महाबलि के चार मन्त्रिओं ने क्रमशः उन्हें चार्वाक, बौद्ध, वेदान्त तथा जैनधर्म का स्वरूप कहकर सुनाया था। अतः कुवलयमालाकहा का धर्म-परीक्षा सम्बधी यह प्रसंग विषयवस्तु एवं स्वरूप की दृष्टि से पूर्ववर्ती लोक-परम्परा पर आधारित है। किन्तु एक साथ इतने अधिक मतों की समीक्षा प्रस्तुत करना इसकी विशेषता है। उद्योतनसूरि के बाद प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत में धर्मपरीक्षा नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखे जाने लगे। उद्योतन के लगभग दो सौ वर्षों बाद अपभ्रंश में हरिषेण ने 988 ई. में धम्मपरीक्खा लिखी। और इसके 26 वर्ष बाद ई. सन् 1014 में अमतिगति ने संस्कृत में धर्मपरीक्षा नामक ग्रन्थ की रचना की। इन दोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। 22 उससे ज्ञात होता है कि ये दोनों ग्रन्थ प्राकृत में जयराम द्वारा लिखित धम्मपरीक्खा पर आधारित हैं।23 यद्यपि उनपर प्राकृत की उपर्युक्त रचनाओं का प्रभाव भी हो सकता है। जयराम की धम्मपरिक्खा आज उपलब्ध नहीं है । सम्भवतः यह उद्योतनसूरी के बाद और हरिषेण के पूर्व किसी समय में लिखी गयी होगी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि 8 वीं से 11 वीं शताब्दी का समय धार्मिक क्षेत्र में खण्डन- मण्डन और तर्कणा का था, जिसमें जैनधर्म के मौलिक स्वरूप को बचाये रखने का प्रयत्न इन धर्म-परीक्षाओं ने किया है। सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू में इसका विस्तृत वितरण प्राप्त होता है। 24 किन्तु यह कार्य दार्शनिक स्तर पर ही हो सका है। सामाजिक स्तर पर तो जैनधर्म अन्य धर्मों की विशेषताओं के साथ बहुत प्रभावित हो गया था, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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