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________________ धर्मपरीक्षा - अभिप्राय की परम्परा / 105 भावना का ही विकास है। धर्म-परीक्षा अभिप्राय के विकसित होने में दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व तर्क-पद्धति का क्रमशः विकसित होना है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के अनेक एकान्तवादी चिन्तकों के बीच से महावीर के चिन्तन का उभरना सत्य की श्रेष्ठतम पहचान का प्रमाण है। 12 ब्रह्मजालसुत्त में अनेक मत-मतान्तरों के प्रचलित होने का उल्लेख सत्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से परखने का परिचायक है। 13 सूत्रकृतांग में अक्रियावाद, अज्ञानवाद, क्रियावाद आदि मतों की समीक्षा की गयी है। 4 प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा आदि पांच व्रतों के विवेचन के प्रसंग में सत्य का निरूपण करते हुए विभिन्न दार्शनिकों के मतों को असत्य कहा गया है। 15 यह तर्क-पद्धति दार्शनिक मतों से सम्बन्धित थी। जब कभी किसी जैन ग्रन्थ में अन्य मतों का खण्डन करना होता था तो प्रायः इसी प्रकार की एक प्रणाली अपनायी जाती थी। और उन सभी जैनेतर मतों की समीक्षा कर दी जाती थी, जो दार्शनिक क्षेत्र में प्रसिद्ध थे। भले ही उनका अस्तित्व ग्रन्थकार के युग में हो अथवा नहीं । अतः कुवलयमाला में जिन प्रसिद्ध दार्शनिक मतों की परीक्षा की गयी है, वह परम्परा से अधिक प्रभावित है। किन्तु प्रत्येक धर्म के जिन अन्य अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन उद्योतन ने किया है, वे सम्भवतः आठवीं शताब्दी में विद्यमान थे। धर्मपरीक्षा अभिप्राय के विकास में तीसरा महत्त्वपूर्ण आधार पौराणिक एवं कल्पित बातों पर जैनाचार्यों द्वारा व्यंग करने की प्रवृत्ति है। इसका प्रारम्भ सम्भवतः विमलसूरि के पउमचरिउ से हुआ है। तत्कालीन प्रचलित रामकथा में विमलसूरि को अनेक बातें विपरीत, अविश्वसनीय तथा कल्पित प्रतीत हुईं। अतः उन्होंने नयी रामकथा लिखी। 16 काव्य में दार्शनिक तथ्यों के प्रति चिन्तन का यह प्रारम्भ था । बुद्धघोष ने अपने ग्रन्थों में इसे विस्तार से स्थापित किया । गुप्तयुग के कवियों ने अपने ग्रन्थों में कहीं न कहीं दार्शनिक खण्डन- मण्डन को स्थान देना अनिवार्य मान लिया था। आगे चलकर यह एक काव्यरूढ़ि हो गयी, जिसका प्रभाव धर्मपरीक्षा के स्वरूप पर पड़ा है। अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू ने भी जैनेतर मान्यताओं का खण्ड़न किया है तथा अपना काव्य प्रचलित रामकथा की पौराणिक व अतिशयोक्तिपूर्ण बातों से बचाकर लिखने की प्रतिज्ञा की है। 17 किन्तु प्राकृत- अपभ्रंश के कवियों की इस प्रकार की प्रतिज्ञाओं और उनके काव्यों को एक साथ देखने पर स्पष्ट है कि जिन अलौकिक बातों से वे बचना चाहते थे, उनके काव्य उनसे अछूते नहीं है। 18 अन्तर केवल यह है कि जैनेतर ग्रन्थों के पात्र जिन कार्यों को करते थे वे ही कार्य अब उन पात्रों के द्वारा कराये जा रहे हैं जिन्हें कवि ने जैन बना दिया है। अतः मतान्तरों में व्याप्त पाखण्ड के प्रति जो व्यंग विमलसूरि ने प्रारम्भ किया था, वह अधिक तीव्र नहीं हुआ । कारण इसके कुछ भी रहे हों। किन्तु ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी में पुनः धर्म-दर्शन के क्षेत्र में परीक्षण को प्रधानता दी जाने लगी। बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थों में अनेक दार्शनिक आचार्यों के मतों का परिचय दिया है। 19 हर्षचरित में दिवाकर मित्र के आश्रम के प्रसंग में उन्नीस सम्प्रदायों के आचार्यों का नामोल्लेख है । उनके कार्यों से ज्ञात होता है कि वे अपने मतों के प्रति संशय, निश्चय करते हुए व्युत्पादन भी करते थे। किसी एक सिद्धान्त को केन्द्र में रखकर अन्य के साथ उसकी तुलनाकर फिर शास्त्रार्थ के लिए प्रवृत्त होते थे। 20 अतः अन्य मतों की समीक्षा कर किसी एक मत को श्रेष्ठ बतलाना, इस युग के साहित्यकार के लिए एक परम्परा होने लगी थी। इसी का निर्वाह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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