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प्राकृत भारती
गया। अतः यदि तुम्हें रूचिकर हो तो तुम मूलदेव के पास चली जाओ। उसने कहा--'अति कृपा । आपकी कृपा से ही हमारा मनोरथ पूर्ण हआ है। तब अति वैभव के साथ पुरष्कृत कर उसे भेजा गया और वह चली गयी। मूलदेव ने भी अति-वैभव के साथ उसको प्रविष्ट कराया। उनमें परस्पर एकाधिकार हो गया । मूलदेव उसके साथ विषय-सुख का अनुभव करता हुआ जिन-भवन व मूर्ति बनवाने
एवं उनका पूजन करने में तत्पर होकर रहने लगा। [२१] इधर वह अचल पारसकुल में बहुत श्रेष्ठ द्रव्य और माल को अर्जित
करके और भर कर बेन्नातट आया और वहाँ बाहर ठहरा । लोगों को पूछा--'यहाँ के राजा का क्या नाम है ? "विक्रमराज' ऐसा कहा गया। तब वह हिरण्य, सुवर्ण, मोती के थाल भरकर राजा को देखने के लिये गया। राजा ने आसन दिया। (वह) बैठा (राजा ने) उसे पहचान लिया। अचल ने उसे नहीं जाना। राजा ने पूछा-- 'श्रेष्ठी ! कहाँ से आये हो ?' उसने कहा--'पारसकुल से।' राजा को सम्मान कर अचल द्वारा कहा गया--'हे स्वामी! किसी चाकर (दास) को भेजें, जो माल को देख लें। तब राजा ने कहा--'मैं स्वयं
आऊँगा।' [२२] तब पंच-कुल सहित राजा वहाँ गया । वाहनों में शंख, गंधद्रव्य विशेष
(फोफ्फल) चंदन, अगरू, मंजीठा (रंग) आदि सामग्री को उसने देखा। पंच-कूल के सामने राजा ने पूछा-रे श्रेष्ठी! ये इतने ही हैं ? उसने कहा-"हाँ देव ! इतने ही हैं।" राजा ने कहा-श्रेष्ठि को आधा दान कर दो। किन्तु दूसरे थैलों में मेरे सामने तौलो। पंचकूल के द्वारा वे तोले गये। भार से, पाद-प्रहार से और बाँस-छेदन से उन्हें देखा गया। मजीठा आदि के बीच छिपे हुए अन्य कीमती सामग्री प्राप्त हुई। राजा ने थैलों आदि को खुलवा दिया और चारों तरफ देखा तब कहीं स्वर्ण, कहीं चाँदी, मणि-मोती, प्रवाल आदि की महा मूल्यवान सामग्री देखी गयी । तो उसको देखकर रुष्ट हुए राजा के द्वारा अपने पुरुषों को आदेश दिया गया-"अरे ! इस प्रत्यक्ष चोर को बाँध लो।" तब उनके द्वारा भी धगधगाते हुए हृदय वाले उसको बाँधा गया । उन वाहनों में रखवाले लगाकर राजा भवन को गया। वह अचल भी आरक्षी पुरुषों के द्वारा राजा के समीप लाया गया। प्रगाढ़ बंधनों से बंधे हुए उसको देख कर राजा ने कहा-अरे छोड़ो-छोड़ो। उनके द्वारा उसे छोड़ा गया। राजा ने पूछा-'तुम मुझे जानते हो ?' उसने
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