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________________ बाठ कथानक २३७ [१९] इधर देवदत्ता मूलदेव की वैसी अवमानना को देखकर अचल के ऊपर से सर्वथा विरक्त हो गयी और तब उसे भी इस प्रकार तिरष्कृत किया कि मैं वेश्या है न कि तुम्हारे घर की घर-वाली । तब भी मेरे घर पर तुम इस प्रकार का व्यवहार करते हो, अतः मेरे यहाँ पर तुम्हारे द्वारा पुनः न आया जाय। ऐसा कहकर वह राजा के पास गयी । राजा के चरणों में गिरकर उसने कहा-हे स्वामी ! उस वरदान को प्रदान कर कृपा करे।' राजा ने कहा-'कहो! तुम पर क्या कृपा करूं ? अन्य क्या कहा जाय ?' देवदत्ता ने कहा 'हे स्वामी! मलदेव को छोड़कर अन्य कोई पुरुष मुझे आज्ञा नहीं दे और इस अचल का मेरे घर पर आवागमन भी रोका जाना चाहिये। राजा ने कहा-ऐसा ही होगा। तुमको जिस तरह से रूचिकर हो । किन्तु कहो यह वृतान्त क्या है ? 'तब माधवी के द्वारा समस्त वृतान्त कहा गया। राजा अचल के ऊपर रुष्ट हुआ और बोलाअरे ! मेरी इस नगरी में ये दो ही रत्न हैं, उनको भी यह ठगता है। तब अचल को बुलाकर और उपालम्भ देकर उसे कहा--'अरे ! क्या तुम यहाँ के राजा हो ? जिससे इस तरह का व्यवहार करते हो। अतः अब तुम अपनी शरण खोज लो, मैं तुम्हारे प्राणों का विनाश करता हूँ।' तब देवदत्ता ने कहा-'हे स्वामी ! इस कुत्ते के समान व्यक्ति को मारने से क्या लाभ ? अतः इसे छोड़ दें। राजा ने कहाअरे ! इस महानुभावा के वचन से इस समय तुम छोड़े जा रहे हो। किन्तु उस मूलदेव की आज्ञा से ही अब तुम्हारी शुद्धि होगी। तब चरणों में गिरकर वह अचल राजकुल से निकल गया। दिशा-दिशा को खोजने लगा। तब भी वह मूलदेव उसे नहीं मिला। तब वह उसी पूर्णिमा को माल आदि से वाहन भर कर पारस कुल को रवाना हुआ। [२०] और इधर मूलदेव के द्वारा देवदत्ता को पत्र और उसके राजा को भेंट आदि भेजे गये और राजा को कहा गया-'मेरा इस देवदत्ता से घनिष्ट प्रेम (प्रतिबन्ध) है। अतः यदि इसको और तुम्हें रूचिकर हो तो कृपा करें और इसे भेजें ।' तब राजा ने राज-द्वारपाल को कहा-'अरे ! विक्रमराज के द्वारा यह इस प्रकार कैसे लिखवाया गया है ? क्या हमारे और उसमें कोई विशेष अन्तर है ? सम्पूर्ण राज्य भी उनका ही है। फिर देवदत्ता ही क्या ? केवल उसकी इच्छा होनी चाहिये ? तब देवदत्ता को बुलाया गया और वृतान्त कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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