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________________ १७० प्राकृत भारती धारी चाहते हैं तुम उसको कर दो, यदि सिद्ध हो। उसने कहा कि तुम्हारी उपस्थित से यह मंत्र स्वयं ही सिद्ध हो जायेगा । किन्तु तुम्हारे लिए क्या किया जाय । ऐसा कहने पर मैंने कहा कि मुझे इतना ही प्रयोजन है कि इनकी सिद्धि हो जाय । फिर भी यदि वह मेरी भार्या किसी प्रकार से मेरे वश को प्राप्त हो (तो ऐसा करो)। उसने एक (अदृश्य करने वाला) पदार्थ देकर मुझे कहा कि वह इसकी कृपा से तुम्हे चाहने वाली होगी और तुम मेरी कृपा से काम की तरह सुन्दर होगे । ऐसा वर देकर वह बेताल चला गया। [१०] मंत्र को सिद्ध करने वाले भैरवाचार्य के द्वारा कहा गया कि 'हे महापुरुष ! आपकी कृपा से मंत्र सिद्ध हो गया है। चाहा गया कार्य सम्पन्न हो गया है । दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है । मनुष्य से अतिरिक्त श्रेष्ठ पराक्रम उपलब्ध हुआ, अन्य ही प्रकार की देहप्रभा उत्पन्न हो गई, अतः आपको क्या कहूँ ? आपको छोड़कर स्वप्न में भी कौन दूसरा इस प्रकार के परोपकार से युक्त मार्ग को स्वीकार करता है। तुम्हारे गुणों से उपकृत किया हुआ मैं यह कहने में समर्थ नहीं हूँ कि जा रहा हूँ-स्वार्थ की निष्ठुरता के कारण । तुम परोपकार में लगे हो, ऐसा कहना पुनरुक्ति है। फिर भी प्रत्यक्ष ही उसे देख लिया गया है । तुमसे ही मेरा जीवन है, स्नेहभाव से ऐसा कहना भी उचित नहीं, तुम मेरे बांधव हो--ऐसा कहना दूरी पैदा करता है, निष्कारण परोपकार में लगे हो-यह कहना कृतज्ञ वचनों का अनुवाद है। आपसे मैं संरक्षित हुआ हूँ-ऐसा कहना आपके उपकार को कम करता है।' इस प्रकार कहकर उन तीनों के साथ भैरवाचार्य चले गये । [११] मैं भी शरीर को धोकर अपने आवास में प्रविष्ट हुआ। सिल्क की वेश भूषा छोड़ दो और स्थान-मंडप में ठहरा । उसके बाद कनकमती के भवन को गया । गोष्ठी प्रारम्भ हुई। उसके द्वारा पहेली पढ़ी गयी। मेरे द्वारा हृदालिका पढ़ी गई । ( हृदय को बताने वाली)। गाथा ८. “यदि शिक्षित शिष्य को गुरु के द्वारा यह कहा जाता है कि रात्रि में जाना उचित नहीं है तो शिष्य किस प्रकार कहता है कि-आर्य ! क्रोधित न हों, दोनों समान हैं। __कनकमती ने कहा-.'वह दिव्य ज्ञानी है इसलिए ऐसा कहा।' फिर कनकमती ने हृदालिका पढ़ी-- गाथा ९. 'यदि स्त्री सखियों द्वारा कही गयो कि तेरा प्रियतम दोषों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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