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'प्राकृत भारती जंपियं जहा--"तस्स महंतो सक्कारो कीरइ ।" भत्तुणा भणियं-- "कहमेयं ?" तीए वुत्तं--"वल्लहाए विणा नत्थि अन्नस्स गयाणं पाएण पहणेमि त्ति चितिउपि जोग्गया, किं पुण पहणिउ।" तओ गओ सो रायसहाए, कहियं पुव्वुत्तं । तुटूठो गया। कओ अणेण सव्व-मंतीण सिरोमणी सो।
[१४ ] अन्नया रन्नो विउत्थिओ सीहरहो पंच्चतो राया । तस्सोवरि चलंत-मय-गल-मय-जलासार-सित्त-महियलो तरल-तुरय-खुरुक्खय-खोणिरेणु-घण-पडल-पूरिय-नहंगणो, संचरंत-रह-धवल-धयवडाया वलाय-पंतिमणोहरो, गहि-खज्जिराउज्ज-गज्जि-जज्जरिय-बंभंड-भंडोयरो, नवपाउसु व्व चलिओ राया। अजियसेणो वि दिट्ठो सीलमईए चिताउरो पुच्छिओ चिताए कारणं । तेण वुत्तं--"गंतव्वं भए रन्ना समं । तुमं घेत्तूण वच्चं. तस्स मे गिहं सुन्नं । तहा जइ वि तुमं अवखलियसीला तहवि एगागिणी गिहे मुत्तूण वच्चंतस्स मे न मणनिब्बुई। अओ चिताउरोम्हि ।" तीए वुत्तं--
जलणो वि होइ सिसिरो रवी वि उग्गमइ पच्छिम-दिसाए । मेरु-सिहरं पि कंपइ उच्छलइ धरणि-वीढं पि ॥१०॥ जायइ पवणो वि थिरो मिल्लइ जलही वि नियय-मज्जायं । तहवि महसील-भंगं सक्को वि न सक्कए काउं॥११॥ तहवि तुमं मण-निव्वुइ-हेउ गिह्वसु इमं कुसुम-मालं । मह सील-पभावेणं अमिलाणच्चिय इमा ठाही ॥१२॥ जइ पुण मिलाइ त सील-खंडणं निम्मियं ति जपंती। सा खिवइ निय-करेहिं पइणो कंठे कुसुम-मालं ॥१३॥
तो अजियसेण-मंती सीलमई मंदिरंमि मुत्तूणं । निव्वुय-चित्तो चलिओ सह अरिमदण नरिंदेण ॥१४॥ अणवरय-पयाणेहिं तम्मि पएसंमि नरवई पत्तो। जत्थ न हवंति कुसुमाइं जाइ-सयवत्तियाईणि ॥१५॥ दठू ण कुसुम-मालं अमिलाणं अजियसेण-कंट्ठमि । तं भणइ निवो कत्तो तुह अमिलाणा कुसुम-माला ॥१६॥ अच्छरियमिणं गरुयं मए गवेसावियाई सव्वत्थ । निय-पुरिसे पछवि तहवि न पत्ताई कुसुमाई ॥१७॥ जंपइ मंती जह मह पियाइ पत्थाण-वासरे खित्ता। स च्चिय माला न मिलाइ तीइ सील-प्पभावेण ॥१८॥
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