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________________ ७४ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् यस्तु वस्तुस्वरूपप्रतिपादकत्वेऽपि तद्विपरीतोऽसावहेतुवादो दृष्टिवादात् प्रायेणान्यः । तत्र त्वहेतुवादो भव्याऽभव्यस्वरूपप्रतिपादक आगमः तद्विभागप्रतिपादनेऽध्यक्षादेः प्रमाणान्तरस्याऽप्रवृत्तेः । न हि 'अयं भव्य अयं त्वभव्यः' इत्यत्रागममन्तरेण प्रमाणान्तरप्रवृत्तिसम्भवोऽस्मदाद्यपेक्षया । ननु ‘तद्विभागप्रतिपादकं वचो यथार्थम् अर्हद्वचनत्वात् अनेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादकवचोवत्’ इत्यनुमानात् तद्विभागप्रतिपत्तौ कथं न तस्यानुमानविषयता ? न, एवमप्यागमादेव तद्विभागप्रतिपत्तेः, तद्व्यतिरेकेण प्रमाणान्तरस्य तत्प्रतिपत्तिनिबन्धनस्याभावात् । अर्हदागमस्य च प्रधानार्थसंवादनिबन्धनतत्प्रणीतत्वनिश्चयेऽनुमानतोऽतीन्द्रियार्थविषये प्रामाण्यं निश्चीयते इत्यभ्युपगम्यत एव । आगमनिरपेक्षस्य तु प्रमाणान्तरस्यास्मदादेस्तत्र प्रवृत्तिर्न विद्यते इत्येतावताऽहेतुवादत्वमेतद्विषयागमस्योच्यत इति ॥४३॥ गया है । ऐसे 'हेतु' का प्रतिपादक आगम हेतुवादागम कहा जाता है । इस हेतुवादस्वभाव से जो विपरीत होता है वह वस्तुस्वरूपज्ञापक होने पर भी अहेतुवादागम कहा जाता है । प्रायशः दृष्टिवाद यानी १२वे अंगसूत्र से अन्य जितने भी आगम हैं वे करिब करिब अहेतुवादस्वरूप होते हैं । जैसे, कोई जीव भव्य होता है, कोई अभव्य, इस प्रकार के जीवविभाग का प्रतिपादन हम लोगों के प्रत्यक्षादि प्रमाण से शक्य नहीं है इसलिये भव्याभव्यविभाग बताने वाला आगम अहेतुवाद है । 'यह भव्य है, यह अभव्य है' इस तथ्य की जानकारी में हम लोगों की अपेक्षा से देखा जाय तो जिनागम के अलावा और किसी भी प्रमाण की प्रवृत्ति सम्भव नहीं है । * भव्यत्वादिविभाग आगमगोचर ही क्यों है ? * प्रश्न :- भव्य-अभव्य विभाग अनुमानगम्य क्यों नहीं हो सकता ? देखिये 'भव्य - अभव्य जीवविभागप्ररूपक वचन (पक्षनिर्देश) यथार्थ है ( यह साध्य निर्देश; ) क्योंकि जिनभाषित है ( हेतु), जैसे अनेकान्तमयवस्तुप्ररूपक वचन (उदाहरण) ' - इस प्रकार के अनुमान में उक्त जीवविभाग भी विषय बन जाता । अतः उक्त जीवविभाग अनुमानगम्य हो सकता है । उत्तर :- यहाँ पक्षनिर्देश यानी पक्ष के रूप में उक्त जीवविभाग का निर्देश आगम के विना शक्य ही नहीं है इसलिये ऐसा अनुमानप्रयोग करते समय भी आखिर यही सिद्ध होता है कि उक्त जीवविभाग आगमगम्य ही है, क्योंकि आगम को छोड़ कर, उक्त जीवविभाग का प्रथम बोध कराने वाला और कोई प्रमाण ही मौजूद नहीं है । हाँ, प्रधानभूत दृष्ट चन्द्र-सूर्यग्रहणादि अर्थ के संवादरूप हेतु से जिनभाषित आगम में आप्तरचितत्व का अनुमान से भान हो जाय तब अदृष्ट अतीन्द्रियपदार्थों के विषय में भी अनुमान के द्वारा आगमप्रामाण्य का निश्चय होता है इस तथ्य को हम भी स्वीकारते हैं । यानी आगमनिर्दिष्ट भव्य - अभव्य जीवविभाग रूप विषय में आगम के प्रामाण्य का निश्चय संवादलिंगक अनुमान से जरूर हो सकता है, इसलिये उक्त जीवविभागादि पदार्थों को अनुमानगम्य ( हेतुगम्य) मानने में कोई बाध नहीं है । अहेतुवाद कहने का मूल तात्पर्य इतना ही है कि अनुमान से जिस विषय में आगम-प्रामाण्य निश्चित होता है उस विषय का भान पहले आगम से हो जाय, तभी अन्य अनुमानादि प्रमाण की वहाँ प्रवृत्ति शक्य है, आगमनिरपेक्ष हमारे अन्य किसी प्रमाण की उक्त जीवविभागादि विषय में प्रवृत्ति शक्य नहीं है, इतना मात्र सूचित करने के लिये यहाँ उक्त जीवविभागादि प्रतिपादक आगम को अहेतुवादस्वरूप बताना अभीष्ट है ||४३|| (महोपाध्याय श्रीयशोविजयमहाराज भी स्याद्वादकल्पलता के दूसरे स्तबक में २३वे श्लोक की व्याख्या में लिखते हैं कि “आगमान्य प्रमाण के अगोचर वस्तु का सर्वप्रथम प्रतिपादन आगम से ही शक्य है अतः वैसी अतीन्द्रिय वस्तु हेतुवाद का क्षेत्र नहीं है, यद्यपि आगमनिर्देश के बाद आगमसापेक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति शक्य होने से अतीन्द्रिय पदार्थ हेतुवाद की परिधि में आ जाता है, फिर भी हेतुवाद- आगमवाद की शास्त्रीयव्यवस्था Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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