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पञ्चमः खण्डः - का० ४४ वचनव्यापार केवलमपेक्ष्यायं क्रमः । यदा तु ज्ञान-दर्शन-चारित्रविषये यथावदनुष्ठानप्रवणः तद्विकलश्च पुरुषः प्रतीयते तदाऽनुमानगम्योऽपि तद्विभागो भवति, यथा भव्योऽभव्यो वायं पुरुषः सम्यग्ज्ञानादिपरिपूर्णाऽपरिपूर्णत्वाभ्याम् लोकप्रसिद्धभव्याभव्यपुरुषवत् । अहेतुवादागमावगते वा धर्मिणि भव्याऽभव्यस्वरूपे तद्वि(?दवि)परीतनिर्णयफलो हेतुवादः प्रवर्त्तते । योऽयमागमे भव्यादिरभिहितः स तथैव, यथोक्तहेतुसद्भावादित्याह -
भविओ सम्मइंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो ।
णियमा दक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥४४॥ भव्योऽयम् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रप्रतिपत्तिसम्पूर्णत्वात् उक्तपुरुषवत् । तत्परिपूर्णत्वादेव नियमात् संसारदुःखान्तं करिष्यति कर्मव्याधेरात्यन्तिकं विनाशमनुभविष्यति, तन्निबन्धनमिथ्यात्वादिप्रतिपक्षाभ्याससात्मीभावात्, व्याधिनिदानप्रतिकूलाचरणप्रवृत्ततथाविधातुरवत् । यः पुनर्न तत्प्रतिपक्षाभ्याससात्म्यवान् का भंग नहीं होता क्योंकि प्राथमिक ज्ञान के लिये ही उक्त्त व्यवस्था का निरूपण किया गया है ।)
यहाँ जो पहले अहेतुवाद, बाद में हेतुवाद ऐसा क्रम दिखाया गया है वह सिर्फ वचनव्यापार की अपेक्षा से ही दिखाया है, इस लिये यह कोई नियम नहीं कि पहले अहेतुवाद का विषय बनने के बाद ही वह हेतुवादविषय बन सके । कोई ऐसा भी अनुमान कर सकता है कि एक पुरुष विधिबहुमान से ज्ञान-दर्शन-चारित्र के अनुष्ठान में तत्पर है इसलिये भव्य है, दूसरा पुरुष वैसा नहीं है, इन दो पुरुषों के लिये क्रमशः ऐसे दो अनुमान आसानी से कर सकते हैं कि यह पुरुष भव्य है, क्योंकि सम्यग्ज्ञानादि से अलंकृत है जैसे लोक में प्रसिद्ध सज्जनपुरुष । दूसरा पुरुष अभव्य है, क्योंकि सम्यग्ज्ञानादि से सर्वथा पराङ्मुख है जैसे लोकप्रसिद्ध दुर्जनात्मा । इस प्रकार भव्याभव्यविभाग अनुमानगोचर हो सकता है ।
अथवा, केवलागमगम्य पदार्थों के बारे में जैसे कि भव्यस्वरूप-अभव्यस्वरूप आगमनिर्दिष्ट धर्मि के बारे में आगम जिसे 'भव्य' करार देता है वह उस से विपरीत नहीं किन्तु वैसा ही है; तथा आगम जिसे अभव्य करार देता है वह उस से विपरीत नहीं किन्तु वैसा ही है – इस प्रकार के अविपरीतनिर्णय के फल को निपजाने में हेतुवाद अति उपयोगी बनता है। - इस तथ्य को नीचे ४४ वीं गाथा में बताया जा रहा है कि आगम में जो भव्य आदि तथ्य बताये गये हैं वे यथार्थ ही हैं - ___ मूलगाथार्थ :- 'जो भव्यजीव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के अंगीकार से समृद्ध है, वह अवश्य दुख का उच्छेद करेगा' यह हेतुवाद का लक्षण है ॥४४||
* हेतुवाद का प्रतिपादन * व्याख्यार्थ :- यह आत्मा भव्य है क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के अंगीकार से परिपूर्ण है जैसे कि कोई सज्जन पुरुष । भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि से परिपूर्ण होने के कारण अवश्यमेव संसार के दु:खों का अन्त करेगा । तात्पर्य, कर्मरूप बिमारी का अत्यन्त यानी अपुनर्भाव से विनाश अनुभव करेगा । कर्म बिमारी का मूल मिथ्यात्व-अविरति-कषाय-योग हैं । मिथ्यात्वादि का प्रतिपक्ष है सम्यग् दर्शनादि, जब उस का अभ्यास आत्मसात् हो जाता है तब बिमारी को टलना ही पड़ता है । जैसे, किसी बुखार आदि बिमारी के जो कारण होते हैं अतिभोजन आदि, उस के प्रतिकूल आचरण, हित-मित आहार और औषध का ग्रहण किया जाता है तो उस बिमार की बिमारी टल जाती है । जो कर्मव्याधि के प्रतिपक्ष का अभ्यास आत्मसात्
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