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________________ ७६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नासौ दुःखान्तकृद् भविष्यति तन्निदानानुष्ठानप्रवृत्ततथाविधातुरवत् इति हेतुवादस्य लक्षणम् । हेतुवादश्च प्रायो दृष्टिवादः तस्य द्रव्यानुयोगत्वात्, “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः (त० सू० १-१) इत्यादेरनुमानादिगम्यस्यार्थस्य तत्र प्रतिपादनात् । यथा चात्रानुमानादिगम्यता तथा गन्धहस्तिप्रभृतिभिविक्रान्तमिति नेह प्रदर्यते ग्रन्थविस्तरभयात् ॥४४॥ 'जीवाऽजीवाऽऽश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम्' (त० सू० १-४) इत्युभयवादागमप्रतिपाद्यान् भावांस्तथैवाऽसंकीर्णरूपान् प्रतिपादयन् सैद्धान्तिकः पुरुषः, इतरस्तु तद्विराधक इत्याह - जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ । सो ससमयपण्णवओ सिद्धन्तविराहओ अन्नो ॥४५॥ यो हेतुवादागमविषयमर्थं हेतुवादागमेन, तद्विपरीतागमविषयं चार्थमागममात्रेण प्रदर्शयति वक्ता स स्वसिद्धान्तस्य = द्वादशांगस्य प्रतिपादनकुशलः, अन्यथा प्रतिपादयंश्च-तदर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् तत्प्रतिपादके वचस्यनास्थादिदोषमुत्पादयन् सिद्धान्तविराधको भवति, सर्वज्ञप्रणीतागमस्य निस्सारता नहीं करता है वह सांसारिक दु:खों का विनाश नहीं कर पायेगा, जैसे कोई आदमी बुखार जैसी बिमारी के कारणभूत अपथ्य भोजन में ही प्रवृत्त रहता है वह बुखार को टाल नहीं सकता । इस प्रकार भव्यजीव के बारे में जो अनुमान बताया जाता है वह हेतुवाद का लक्षण है । द्वादशांग जैनागम में जो बारहवा अंग है 'दृष्टिवाद', वह प्राय हेतुवादागमस्वरूप होता है क्योंकि उसकी गणना चार अनुयोगों में से द्रव्यानुयोग में की गयी है । द्रव्यानुयोग में विविध द्रव्य-गुण-पर्यायों की विचारणा विस्तार से तर्क-हेतु आदि से की जाती है । अतः उस में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग इत्यादि अनुमानगोचर विषयों की चर्चा का प्रतिपादन विस्तार से किया जाता है । सम्यग् दर्शनादि तीन मिल कर कैसे मोक्षमार्ग बनता है - इस विषय की विस्तृत चर्चा यहाँ ग्रन्थविस्तार के भय से नहीं करते किन्तु वहाँ कैसे कैसे अनुमानादि की प्रवृत्ति होती है इस की चर्चा में श्री गन्धहस्ती आदि पूर्वाचार्यों ने अच्छा कौशल दिखाया है ॥४४॥ * अन्यथाप्रतिपादन में सिद्धान्तविराधना * सम्यग्दर्शन यानी तत्त्वार्थश्रद्धा है, यहाँ तत्त्व ये सात हैं; 'जीव, अजीव, आश्रव, “संवर, “बन्ध, निर्जरा और "मोक्ष । इन तत्त्वों में से कुछ जीवादि तत्त्व हेतुवादागमगम्य हैं, कुछ बन्ध-निर्जरादि अहेतुवादागमगम्य होते हैं, कुछ उभयगम्य भी होते हैं, जो तत्त्व जिस प्रकार के आगम का विषय हो उसका उसी प्रकार असंकीर्णरूप से प्रतिपादन करना चाहिये । तात्पर्य, जो हेतुवादगम्य हैं उन को सिर्फ आगमगम्य बताना या जो सिर्फ आगमगम्य हैं उन को आगमनिरपेक्ष हेतुवादगम्य भी बताना ऐसी संकीर्णता करना यह जैनागम की विराधना है । अत: उक्त्त द्विविध विभाग का असंकीर्णरूप से प्रतिपादन करनेवाला पुरुष वास्तव में सैद्धान्तिक पुरुष है, उस से विपरीत प्रतिपादन करनेवाला सिद्धान्तविराधक है – इस बातको ४५वीं गाथा से कहते हैं - मूलगाथार्थ :- जो हेतुवादपक्ष में हेतुक (= हेतुवादी) है और आगमपक्ष में आगमिक (= आगमवादी) है वही स्वसिद्धान्त का प्ररूपक है, दूसरा तो सिद्धान्त-विराधक है ॥४५॥ ___ व्याख्यार्थ :- प्ररूपक पुरुष यदि हेतुवादागमसम्बन्धि पदार्थ का हेतुवादागम के रूप में, तथा अहेतुवादागमसम्बन्धि पदार्थ का अहेतुवादागम के रूप में प्रदर्शन करता है वह स्वसमय यानी केवलिभाषित द्वादशांग-आगम के प्रतिपादन में कुशल है, अधिकारी है । जो उलटा प्रतिपादन करनेवाला है वह, उलटे ढंग से अर्थ का यथार्थ प्रतिपादन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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