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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४५ प्रदर्शनात् तत्प्रत्यनीको भवतीति यावत् । ___तथाहि – पृथिव्यादेर्मनुष्यपर्यन्तस्य षड्विधजीवनिकायस्य जीवत्वमागमेन अनुमानादिना च प्रमाणेन सिद्धं तथैव प्रतिपादयन् स्वसमयप्रज्ञापकः, अन्यथा तद्विराधकः । यतः प्रव्यक्तचेतने त्रसनिकाये चैतन्यलक्षणं जीवत्वं स्वसंवेदनाध्यक्षतः स्वात्मनि प्रतीयते, परत्र त्वरेणानुमानतः । वनस्पतिपर्यन्तेषु पृथिव्यादिषु स्थावरेषु अनुमानतश्चैतन्यप्रतिपत्तिः । तथाहि, “वनस्पतयश्चेतनाः, वृक्षायुर्वेदाभिहितप्रतिनियतकालायुष्क-विशिष्टौषधप्रयोगसम्पादितवृद्धि-हानि-क्षत-भग्नसंरोहण-प्रतिनियतवृद्धि-षड्भावविकारोत्पादनाशावस्थानियतविशिष्टशरीरस्निग्धत्व-रुक्षत्व-विशिष्टदौहृद-बालकुमार-वृद्धावस्था-प्रतिनियतविशिष्टरस-वीर्यविपाकप्रतिनियतप्रदेशाहारग्रहणादिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः, विशिष्टस्त्रीशरीरवत्" - इत्याद्यनुमानं भाष्यकृत्प्रभृतिभिर्विस्तरतः प्रतिपादितं तच्चैतन्यप्रसाधकमित्यनुमानतः तेषां चैतन्यमानं सिद्ध्यति। साधारण-प्रत्येकशरीरत्वादिकस्तु भेदः - शक्य न होने के कारण, उस के प्ररूपक श्री जिन के वचनों में अनास्था = अविश्वास आदि दोष को जन्म देता हुआ सिद्धान्तविराधक बन बैठता है । तात्पर्य, विपरीतवादी पुरुष सर्वज्ञरचित आगम को असार दिखा कर यानी उसमें लघुता का आपादन करके वह जिनागम का दुश्मन बन बैठता है । * षड्जीवनिकाय में चैतन्यसाधक प्रमाण * स्पष्टता :- पृथ्वीकाय जीव से ले कर अप्काय-तेजस्काय-वायुकाय-वनस्पतिकाय और त्रसकाय में मनुष्यपर्यन्त छ: जीवनिकायों में जीवत्व यानी चैतन्य, आगमप्रमाण और अनुमानप्रमाण दोनों से सिद्ध है । दशवैकालिक सूत्र के षट्जीवनिकायाध्ययन तथा श्री आचारांगसूत्र के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन इत्यादि आगमों से पृथ्वीकाय आदि में चैतन्य सिद्ध है । अनुमान से भी सिद्ध है यह आगे दिखायेंगे । यह जैसा है वैसा ही प्रतिपादन करनेवाला उपदेशक स्वसिद्धान्त का प्ररूपक होता है, यदि इस से विपरीत प्रतिपादन करता है तो वह सिद्धान्त का विराधक है । त्रसकाय जीवों की चेतना सुव्यक्त होती है, हर एक त्रसकाय जीव को अपनी आत्मा में चैतन्यस्वरूप जीवत्व स्वसंविदित प्रत्यक्ष अनुभव से महेसूस होता है। अन्य त्रस जीव में चैतन्य का एहसास स्वदृष्टान्तमूलक अनुमान से हो सकता है । पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकायपर्यन्त स्थावरकाय जीवों में भी अनुमानप्रमाण से चैतन्य का बोध कर सकते हैं । * वनस्पति में चैतन्यसाधक लिंग * देखिये - वनस्पति सचेतना होती है (यह प्रतिज्ञा है), क्योंकि वृक्षायुर्वेदशास्त्र में जो लक्षण कहे हैं वे चैतन्य के विना संगत नहीं हो सकते । (यह हेतु निर्देश हुआ) उदा० विशिष्ट महिला का शरीर । चैतन्य के विना संगत न होने वाले वे लक्षण ये हैं – स्त्री-शरीर की तरह वनस्पतियों का आयुष्यकाल मर्यादित ही होता है, विशिष्ट यानी प्रतिकुल-अनुकुल औषध प्रयोग से उन में हानि-वृद्धि भी होती है, उन में भी जखम होते हैं – हड्डी की तरह तूट-फुट होने पर भी पुनः रुझान आती है, क्रमशः नियत सीमा तक उनकी वृद्धि होती रहती है, छः प्रकार के 'जन्म-अस्तित्व-विपरिणाम-वृद्धि-अपक्षय-विनाश' इन विकारों का उन में दर्शन होता है, उन का विशिष्ट शरीर उत्पत्ति-विनाश अवस्था से ग्रस्त होता है, उनमें स्निग्धता-ऋक्षता भी होती है, उन में विशिष्ट दोहद भी देखे जाते हैं, बाल-कुमार-वृद्धावस्था भी उन में उपलब्ध हैं, विशिष्ट कोटि के नियत रस-वीर्य और विपाक भी दिखाई देता है तथा नियत प्रमाणवाले आहार का ग्रहण भी करते हैं । ये सब लक्षण स्त्रीशरीर और वनस्पतिकाय में समानरूप से उपलब्ध होते हैं जो चेतना के विना संगत नहीं हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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