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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् 'गूढसिर-संधि-पव्वं समभंग-महीरगं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तब्विवरीयं च पत्तेयं ॥' (जीवविचार प्र० गाथा-१२) इत्याद्यागमप्रतिपाद्य एव ।
जीवलक्षणव्यतिरिक्तलक्षणास्त्वजीवा धर्माऽधर्माकाश-काल-पुद्गलभेदेन पञ्चविधाः । तत्र पुद्गलास्तिकायव्यतिरिक्तानां स्वतोमूर्तिमद्दव्यसम्बन्धमन्तरेणात्मद्रव्यवदमूर्त्तत्वाद् अनुमानप्रत्ययावसेयता । तथाहि, गति-स्थित्यवगाहलक्षणं पुद्गलास्तिकायादिकार्यं विशिष्टकारणप्रभवं विशिष्टकार्यत्वात्, शाल्यंकुरादिकार्यवत्, यश्चासौ कारणविशेषः स धर्माऽधर्माऽऽकाशलक्षणो यथासंख्यमवसेयः । कालस्तु विशिष्टपरापरप्रत्ययादिलिंगानुमेयः । पुद्गलास्तिकायस्तु प्रत्यक्षाऽनुमानलक्षणप्रमाणद्वयगम्यः । यस्तेषां धर्मादीनामसंख्येयप्रदेशात्मकत्वादिको विशेषः तत्प्रदेशानां च सूक्ष्म-सूक्ष्मतरत्वादिको विभागः स 'कालो य होइ सुहुमो' ( ) इत्याद्यागमप्रतिपाद्य एव नागमनिरपेक्षयुक्त्यवसेयः । एवमाश्रवादिष्वपि तत्त्वेषु सकते । इस प्रकार के अनेक अनुमान विशेषावश्यकभाष्यकार ने विस्तार से कहे हैं (वि. आ० भा० गाथा १०३ पृ० ६८-६९), जो चैतन्य के उद्घोषक हैं ।
यद्यपि इस प्रकार के अनुमान से वनस्पति आदि जीवों में सिर्फ चेतना ही सिद्ध होती है, उन में जो ‘साधारण (=अनन्तकाय) और प्रत्येक' ऐसा शास्त्रोक्त्त विविध विभाग है वह तो सिर्फ आगमगोचर ही होता है । आगम में (जीवविचार ग्रन्थ में) कहा है, 'जिस के सिरा-संधि और पर्व गुप्त होते हैं, समान छेद होता है, भूमि के नीचे ऊगता है (ऐसे कन्द), छिन्न टुकडे भी ऊगते हैं -- ऐसा वनस्पतिकाय 'साधारण' है और इन से उलटे लक्षणवाला वनस्पतिकाय 'प्रत्येक' हैं ।
* अजीव द्रव्यों का लक्षण-निर्देश * जीव के कहे गये लक्षणों से विपरीत लक्षण जिन में होते हैं उन्हें 'अजीव' कहा जाता है । अजीव के पाँच भेद हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल और पुद्गल (भौतिकद्रव्य) । पुद्गल की बात बाद में करेंगे । पुद्गलभिन्न जो चार अजीव हैं वे मूर्त्तद्रव्य के सम्बन्ध से उपचारतः मूर्त कहे जाय तो अलग बात है बाकी स्वयं तो आत्म-द्रव्य की तरह अरूपी और अमूर्त हैं, इसलिये उन का प्रत्यक्ष हम लोगों को अशक्य है, हाँ अनुमान से उन की प्रतीति शक्य है (आगम से तो है ही) । देखिये यह अनुमान -- ‘जीव और पुद्गल के जो गति, स्थिति और अवगाहना ये तीन कार्य हैं वे विशिष्टकारणजन्य हैं (प्रतिज्ञा) क्योंकि वे कार्य विशिष्ट कोटि के हैं (हेतु), जैसे शालीजन्य अंकुरादि विशिष्ट कार्य ।।
* धर्मास्तिकाय आदि पाँच अजीव द्रव्य * ____ यहाँ क्रमशः जो गति का कारणविशेष सिद्ध होता है उस की 'धर्मास्तिकाय' संज्ञा की गयी है, स्थिति के कारणविशेष की 'अधर्मास्तिकाय' संज्ञा की गयी है और अवगाहना के कारणविशेष की 'आकाश' संज्ञा की गयी है । तथा, विशिष्ट ढंग से जो 'यह उस से बड़ा है और यह इस से छोटा' इस प्रकार के परत्वअपरत्व की प्रतीति होती है उस को लिंग बना कर पूर्ववत् विशिष्ट कारण के रूप में 'काल' का अनुमान हो सकता है । तथा, पुद्गलास्तिकाय का बोध प्रत्यक्ष प्रमाण से तो होता ही है और वृक्षकम्पनादि लिंग से वायु आदि पुद्गलों का अनुमानप्रमाण से भी बोध होता है ।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय में अविभाज्य असंख्य प्रदेश होते हैं यह विशेषता है, आकाश के अनन्त प्रदेश यह उस की विशेषता है, काल के समय-आवलिकारूप खंड यह उसकी विशेषता है, पुद्गल का चरम
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