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________________ पश्चम: खण्ड: का० ४६ युक्त्यागमगम्येषु युक्तिगम्यमंशं युक्तित एव, आगमगम्यं तु केवलागमत एव प्रतिपादयन् स्वसमयप्रज्ञापकः, इतरस्तु तद्विराधक इति प्रज्ञापकलक्षणमवगन्तव्यम् ॥४५॥ यो हेतुसाध्यमर्थं हेतुना साधयति आगमसिद्धं च आगमेन, तस्य नयवादः परिशुद्धः नान्यस्येत्येतदेवाह 'परिसुद्ध०' इत्यादि; यद्वा वस्तुधर्मप्रतिपादको हेतु - हेतुवादप्रभेद आगमो वाक्यनय-रूपः परिशुद्धेतरभेदेन द्विरूपतां प्रतिपद्यते इत्याह परिसुद्धो नयवाओ आगममेत्तत्थसाहओ हो । सो चेव दुण्णिगिण्णो दोणि वि पक्खे विधम्मे ||४६ ॥ परि समन्तात् शुद्धो नयवादः यदा विवक्षिताऽविवक्षितानन्तरूपात्मकवस्तुप्रतिपादकं नयवाक्यं प्रवर्त्तते ‘स्यान्नित्यम्' इत्यादिकं तदा भवति, प्रमाणपरिशुद्धागमार्थमात्रस्य न्यूनाधिकव्यवच्छेदेन प्रतिपादनात् अधिकस्याऽसम्भवेन न्यूनस्य च नयानामसर्वार्थत्वप्रसंगतोऽर्थस्य परिशुद्धागमविषयत्वाऽयो = ७९ अंश परमाणु होता है, इन में कोई सूक्ष्म होता है (जैसे काल) तो कोई सूक्ष्मतर होता है (जैसे गगन) इत्यादिरूप में जो विभाग है वह केवल 'कालो य होइ सुहुमो' ( ) = काल सूक्ष्म होता है इत्यादि आगमप्रमाण से जान सकते हैं, वहाँ आगमनिरपेक्ष अनुमानादि प्रमाण मूक हैं । जीव-अजीव के बाद आश्रव - संवरादि मोक्षपर्यन्त जो तत्त्व हैं, ये सभी कुछ अंश में आगमगम्य तो कुछ अंश में युक्तिगम्य होते हैं, अतः जो युक्तिगम्य अंश हैं उस का युक्ति से ही प्रतिपादन करनेवाला और आगमबोध्य अंश का आगम से प्रतिपादन का कर्त्ता वह स्व- समयप्रज्ञापक कहा जायेगा, उस के बदले उलटा प्रतिपादन करनेवाले को आगम का विराधक कहा जायेगा इस प्रकार यह प्रज्ञापक का लक्षण पिछान लेना चाहिये ॥४५॥ -- * परिशुद्ध नयवाद अपरिशुद्ध नयवाद * व्याख्याकार ४६ वीं मूलगाथा की अवतरणिका दो प्रकार से दिखाते हैं हेतुसाध्य अर्थ की सिद्धि हेतु के द्वारा और आगमसिद्ध अर्थों की सिद्धि आगम से करनेवाला जो प्रज्ञापक है उस की प्रज्ञापना जैसे स्वसमयप्रज्ञापना है वैसे ही उसीका नयवाद भी परिशुद्ध होता है, दूसरों का नहीं, यह तथ्य ग्रन्थकार प्रदर्शित करने जा रहे हैं अथवा, वस्तु के धर्मों को दिखानेवाला आगम जो अहेतुवाद और हेतुवाद ऐसे दो भेदवाला है वह वाक्यात्मक, अत एव नयगर्भित होता है, उन में कोई परिशुद्ध होता है तो दूसरा अशुद्ध होता है, इस प्रकार जो दो भेद हैं उन की स्पष्टता के लिये कहते हैं। Jain Educationa International मूल परिशुद्ध नयवाद आगमोक्त अर्थमात्र का साधक होता है । दुर्निगीर्ण यानी असद्रूप से प्रयुक्त नयवाद दोनों ही पक्ष का विधर्मी बनता है, (अर्थात् अपरिशुद्ध बन बैठता है ) ||४६|| व्याख्यार्थ :- परिशुद्ध शब्द में 'परि' का अर्थ है समन्तात् यानी अनेक दृष्टि से, वह नयवाद शुद्ध है जो विवक्षित एवं अविवक्षित अनन्तधर्मात्मक वस्तु के प्रदर्शक 'कथंचित् यह नित्य ही है' इस ढंग से नयवाक्यों का प्रयोग करता है । कारण, इस प्रकार के नयवाक्य से प्रमाणविशुद्ध आगमोक्त अर्थमात्र का ऐसा निरूपण होता है जिस में न तो कोई न्यूनता हो या अधिकता । यदि न्यूनाधिक दोषयुक्त वाक्यप्रयोग किया जाय तो For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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