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________________ ८० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गात् । स एव नयवादः इतररूपनिरपेक्षैकरूपप्रतिपादकत्वेन यदा दुर्निक्षिप्तः प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वेनाऽवतारितस्तदा द्वितीयधर्मनिरपेक्षस्य प्रतिपाद्यधर्मस्याऽप्यभावतोऽप्रतिपादनाद् अपरिशुद्धो भवति, प्रमाणविरुद्धस्य तथातदर्थस्य व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् ॥४६॥ अपरिशुद्धश्च नयवादः परसमयः, कियद्भेदो भवति ? इत्याह - जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवाया ।" जावइया णयवाया तावइया चेव होति परसमया ॥४७॥ अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन एकदेशस्य यद् अन्यनिरपेक्षस्यावधारणम् अपरिशुद्धो नयः, तावन्मात्रार्थस्य वाचकानां शब्दानां यावन्तो मार्गाः = हेतवो नयाः तावन्त एव भवन्ति नयवादास्तत्प्रतिपादकाः शब्दाः । यावन्तो नयवादास्तावन्त एव परसमया भवन्ति स्वेच्छाप्रकल्पितविकल्पनिबन्धनत्वात् परसमयानां परिमितिर्न विद्यते । ननु यद्यपरिमिताः परसमयाः कथं तन्निबन्धनभूतानां नयानां संख्यानियमः 'नैगमवह परिशुद्धागमोक्त्त अर्थविषयक नहीं होगा, क्योंकि अधिक अर्थ का सम्भव नहीं होता, (यानी सर्वज्ञभाषित आगममोक्त्त अर्थ से अतिरिक्त्त अर्थ के प्रतिपादन में उस की गुंजाईश नहीं होती) तथा न्यून अर्थ का प्रतिपादन करने में वे नयगर्भितवाक्य सर्वार्थव्यापक नहीं हो पायेंगे, यह अतिप्रसंग है । ___यदि वही नयवाद अन्यधर्मनिरपेक्ष किसी एक धर्म के प्रतिपादन पर बल करेगा तो तब उस का अवतार सिर्फ प्रमाणविरुद्धार्थ प्रतिपादक रह जायेगा, फलतः वह अविशुद्ध कहा जायेगा, क्योंकि प्रतिपाद्य धर्म अपने सापेक्ष धर्मों के विरह में शून्य हो जाने से प्रतिपादन के काबिल ही नहीं रहेगा । अन्यधर्मनिरपेक्ष विवक्षितधर्म तो प्रमाण से विरुद्ध है इसलिये अन्यधर्मनिरपेक्षरूप में उस की प्रतिष्ठा कभी शक्य नहीं होती । * वचनमार्ग, नयवाद और अन्यदर्शनों की समान संख्या * ___ अपरिशुद्ध नयवाद यही पर(जैनेतर) समय है । उस के कितने भेद हो सकते हैं - यह ४७ वी गाथा से कहते हैं - ___ मूलगाथार्थ :- जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हो सकते हैं, जितने नयवाद हैं उतने ही इतर दर्शन होते हैं ॥४७॥ व्याख्यार्थ :- वस्तु स्वयं अनेकान्तात्मक होती है । उस के अनेक अंश होते हैं, उस में से अन्य अंशों की अक्षम्य उपेक्षा से साथ किसी एक अंश का निर्धारण कर लेना यह अपरिशुद्ध नय है । उतने मात्र अंशभूत अर्थ के वाचक शब्दप्रयोग के हेतुभूत जितने अध्यवसायात्मक नय हैं, उतने ही नयवाद यानी उन के प्रतिपादक शब्द होते हैं । तात्पर्य यह है कि किसी एक वस्तु के भिन्न भिन्न अंशों को लेकर उस वस्तु का जितने प्रकार से निरूपण किया जा सकता है उतने नयवाद हो सकते हैं । जितने नयवाद हैं उतने ही अन्य दर्शन हो सकते हैं, क्योंकि वे सभी एकान्त दर्शन स्वच्छंद ढंग से किये गये विकल्पों की नींव पर खडे होने वाले हैं इस लिये उन की संख्या की कोई सीमा ही नहीं है। __यदि पूछा जाय - अन्य दर्शन जब अगणित हैं तो उनके मूलभूत नयों की संख्या सीमित क्यों है ? म यावन्तो वचनपथाः = वक्तृविकल्पहेतवोऽध्यवसायविशेषा: तावन्तो नयवादा: = तज्जनितवक्त्तृविकल्पाः शब्दात्मका: सामान्यतो नैगमादिसप्तभेदोपग्रहेऽपि प्रतिव्यक्ति तदानन्त्यात् । यावन्तश्च नयवादास्तावन्त एव परसममयाः, निरपेक्ष-वक्तृविकल्पमात्रकल्पितत्वात् तेषाम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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