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पञ्चमः खण्डः - का० ४८ संग्रह-व्यवहार-र्जुसूत्र-शब्द-समभिरूढैवंभूता नयाः' इति श्रूयते ? न, स्थूलतस्तच्छ्रुतेः, अवान्तरभेदेन तु तेषामपरिमितत्वमेव स्वकल्पनाशिल्पिघटितविकल्पानामनियतत्वात् तदुत्थ-प्रवादानामपि तत्संख्यापरिमाणत्वात् ॥४७॥ ननु कं नयमाश्रित्य कः परसमयः प्रवृत्तः ? को वा कस्य विषयः ? इत्याह -
जं काविलं दरिसणं एवं दवट्ठियस्स वत्तव्यं ।
सुद्धोअणतणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ॥४८॥ यत् कापिलं दर्शनं = सांख्यमतम् एतद् द्रव्यास्तिकनयस्य वक्तव्यम्, तद्विषयविषयम् तदुत्थापितं चेति भावः । शौद्धोदनेस्तु परिशुद्धः पर्यायविशेष एव वक्तव्यः - परिशुद्धपर्यायास्तिकनयविशेषविषयं तदुत्थापितं च सौगतमतमित्यभिप्रायः । मिथ्यास्वरूपनयप्रभवत्वात् अनयोः मिथ्यात्वं 'प्राक् प्रदर्शितमेव ॥४८॥
ननु भवतु परस्परनिरपेक्षैकैकनयावलम्बिनोः सांख्यसौगतमतयोमिथ्यात्वम्, कणभुग्मतस्य तु द्रव्याजैसे कि सुना जाता है 'नैगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं ।' - तो यह प्रश्न ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ सात नय का कथन सिर्फ मोटे तौर पर किया हुआ है, एक एक के अवान्तर भेद-प्रभेद गिने जाय तो वे अगणित होने का पता चलता है. कारण, स्वच्छंद कल्पनात्मक शिल्पियों के रचे हुये विकल्पों की संख्या की कोई इयत्ता नहीं होती, अत: उन विकल्पों से जन्मे हुए अन्यतीर्थिक प्रवादों का संख्यापरिमाण भी उन विकल्पों के समान ही होगा ।।४७||
प्रश्न :- किस नय को पकड कर कौन सा अन्य दर्शन प्रवृत्त हुआ ? अथवा कौन से अन्य दर्शन का क्या विषय है ? इन प्रश्नों के उत्तर में कहते हैं -
* सांख्य-सौगतमत का उद्गमस्थान नय * मूलगाथार्थ :- कपिल ऋषि का सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिकनय का वक्त्तव्य है, शुद्धोदनपुत्र बुद्ध का दर्शन परिशुद्ध पर्यायावलम्बि है ॥४८॥
व्याख्यार्थ :- जैन मतानुसार श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर का पौत्र मरिचि था उस के शिष्य कपिल ऋषि ने सर्व प्रथम सांख्य दर्शन का प्रतिपादन किया । उस का वक्त्तव्यभूत विषय वही है जो द्रव्यार्थिकनय का विषय है । इसलिये द्रव्यार्थिक नय ही सांख्यदर्शन का मूल उद्गमस्थान है । द्रव्यार्थिक नय द्रव्य को प्रधानता देने वाला है, सांख्य दर्शन ने इस दृष्टि को अपना कर पुरुष और प्रकृति ऐसे दो तत्त्व को अपने दर्शन में मुख्य स्थान दिया और प्रकृतितत्त्व को ही सारे जगत् का द्रव्य यानी उपादान कारण बताया ।
शुद्धोदन यह गौतमबुद्ध के पिता का नाम था । गौतम बुद्ध ने बौद्धमत की स्थापना की । परिशुद्ध यानी द्रव्य से निरपेक्ष पर्यायविशेष जो कि पर्यायनयों का विषय है वही बौद्धमत का विषय है । तात्पर्य यह है कि सर्वनयसमवायवादी जैन दर्शन के एक अंशभूत पर्यायनय को पकड कर बौद्ध दर्शन प्रवृत्त हुआ । पहले ही यह कह दिया है कि अन्योन्य निरपेक्ष एकान्तावलम्बि द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दोनों नय मिथ्यावादी हैं और इन मिथ्यावादी नयों से उक्त सांख्य-बौद्ध दर्शन का उद्भव हुआ है इस लिये सांख्य-बौद्ध दर्शन भी मिथ्या है ॥४८॥ १. पृ० २९६-८, ३८७-१८
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